Sunday, August 15, 2010

आज

आज सिर्फ उनको नमन करो
आज बस उनकी बात करो
आज शिकायते ना करो
आंसू भी ना बहाओ
दो फूल श्रद्धा के
हाथों में उठाओं
उस ध्वज पर चढाओ
जो छत्र बन तना है
जो
लोकतंत्र का प्रहरी बना है
आज
उनको मत कोसो
जो
हमें धकेलने में लगे है
पीछे
आज
उनको नमन करो
दो फूल
कृतज्ञता के
उन्हें भी चढाओ
जिन्होंने
शीश अपने
अर्पण किये है
जिन्होंने
बलिदान कितने दिए है
आज
आपनी समस्याओं पर
शोक मत मनाओ
आज
विडम्बनाओ को
वर्जनाओं को
भूल जाओ
दो फूल
उन्हें भेट करना
जो
असत्य से लड़े है
जो
संविधान के
पक्ष में खड़े है !

ओ भारत माता !!

रोज सवेरे पूरब तेरे
सूरज नमन को आता
तू है मेरी जन्म भूमि माँ
तू हम सब की माता
मेरी भारत माता , ओ मेरी भारत माता !
भारत माता , ओ भारत माता !!

हम करे वन्दना तेरी
जग तुझको शीश नवाता
हम करे प्रार्थना तेरी
जीवन की राह अँधेरी
जो आशीष तेरा मिल जाता
पथ में प्रभात हो जाता
ओ भारत माता, ओ भारत माता!!

यहाँ जग में विशाल हिमाला ,
जिसने गंग जमन को पाला
इसकी मिटटी में सोना
इसमे मिल कर ही खोना
जो गोद तेरी सो जाता
मुझे स्वर्ग यही मिल जाता
ओ भारत माता, ओ भारत माता!!

यही रची स्रष्टि की गाथा
कहे उन्नत कर कर माथा
तेरा ध्वज इतिहास उठाता
हर पग भविष्य को जाता
तू वेद संस्कृति दाता
तेरा पुत्र जगत का भ्राता
ओ भारत माता, ओ भारत माता!

(अपने लड़कपन में लिखी ये रचना आज सब से बाटते हुवे बहुत हर्ष हो रहा है ! सभी मित्रों , शुभचिंतकों व स्नेहीजनो को भारत वर्ष के स्वंत्रता दिवस पर्व की हार्दिक हार्दिक बधैया ! इश्वर हमें सन्मार्ग पर आगे बढाए यही कामना करता हु ...शुभम अस्तु !)
तरुण कुमार मोहन सिंह ठाकुर
इंदौर से

Thursday, August 12, 2010

जब तुम घर नहीं होती

मेरा मन भी बैचैन रहता है
अस्थिर भटकता हूँ
जगत में
मन के सुने वन में
अजीब से
ख्यालों से
जूझता हुवा
इन्तेजार करता हु प्रिये!
के कब
तुम्हे लौटा लाऊ
अब तो
बच्चो की याद भी
बहुत आती है
और
उनकी छुट्टिया भी
ख़त्म होने को है
सोचता हु
इस इतवार
किसी बहाने
तुम्हे लिवा लाऊ
मगर
कुछ मजबुरिया है
अब
तुमसे क्या छुपा है
गर्मियों के ये
अंतिम सप्ताह
यानी पानी की किल्लत
तुम यहाँ होती
तो हम तुम रातों को
जाग रहे होते
दो घड़े पीने के पानी के लिए
और
तुम हलकान रहती घर पर
गर्मी के मारे |
बड़का तो चलो
अब गर्मी सह लेता है
मगर छुटकी
उसे कैसे सुलाती तुम
फिर
इस विकराल समस्या
के अलावा
कई बड़ी छोटी
समस्याए है |
खडी बैठी
के एक एक कर
हल कर तो रहा हूँ
मगर
कभी चादर छोटी पड़ जाती है
कभी समस्या फ़ैल जाती है
इन्हें समेटने सहेजने और सुलझाने में
पूरा दिन
उलझता हूँ
फिर
रसोई में भी लगता हु
कच्ची पक्की खाकर
गुजारा कर रहा हु
समझ ही नहीं आता
जी रहा हूँ
या मर रहा हु
हां पर
इन्तेजार कर रहा हु
तुम बस
पहली खबर पाते ही
बिस्तरा बाँध लेना
मैं अगली गाडी से
पहुच जाउंगा
इस रविवार डार्लिंग
तुम्हे
जरुर लिवा लाऊंगा |

Tuesday, August 3, 2010

वो....शिखर !

जब मैंने
पहाड़ पर चढ़ने के लिए
सीढिया बनाना
शुरू ही की थी
उन्हें लगा
मुझे
मदद चाहिए होगी
फिर
वो
मेरी जिंदगी में आयी
कई वादों
और
नेक इरादे के साथ
मगर
उसका काम
आसान भी था
मुश्किल भी
आसान यू
के उसे नीचे ही रहना था
ऐसी कोई
शर्त तो नहीं थी
मगर
यही था
जो उसके लिए
सबसे आसान
और
सहज स्वीकार्य होता
ऐसा मान भी लिया गया
उसे
अपना नया काम
बहुत भाया
उसने
बड़ा जी लगाया
मैं
रोज ऊपर जाता
नयी सीढिया
तराशता
अपने लिए
अपनो के लिए
मैं
रोज रात
नीचे लौटता
जब
अन्धेरा हो जाता
सुबह तक
सोया रहता
जुल्फों की
घनी छाव में
चाँद को
देखते हुवे
जो
बहुत हँसीं हुवा करता था
बेशक
उन दिनों
सुबह
मेरा जी तो नहीं चाहता
मगर
वक़्त की धूप
मुझे
कोड़े मार मार कर जगाती
भेजती
ऊपर
जहा
कल
मैं अपना काम
बाकी छोड़ आया था

आज
कई मंजिलो ऊपर
रोज
चढ़ना उतरना
हो नहीं पाता
थक जाता हूँ
वो भी
अब परेशान रहती है
जुल्फों की छाव भी
अब
कम घनी हो रही है
चाँद
मुरझाने लगा है
मेरे
अपने
जो
चढ़ सकेंगे
शिखर पर
मेरे बाद
कही आराम से
उसे सताने लगे है
वो चाहती है
मैं उसे भी
साथ ले चलू
गोद में उठाकर
या
नया शिखर रचू
उसे साथ लेकर
मैं
अनिश्चय में
कभी
उसे
कभी
शिखर को देखता हूँ
जहा
बस
कुछ सीढियों
का फासला बाकी है
फिर
महसूस करता हूँ
उसके
और
मेरे दरम्यान
दुरी बढ़ती जा रही है
शिखर
नजदीक आता जा रहा है
वो
दूर होती जा रही है !

Wednesday, July 28, 2010

मार्केटिंग

थोड़ा श्रम
बहुत सी शर्म
और
सारी इंसानियत को
बुझे हुवे
आत्मविश्वास की राख में
लपेट कर
बेचने की कला है
"मार्केटिंग "

"उत्तरदायित्व"
नीचे की ओर
"श्रेय"
ऊपर की ओर
सहज
प्रवाहित है |
स्वीकार्य
ओर
अपरिहार्य
की लड़ाई में
विवेक को
तिलांजलि देना
शोर्य
ओर
समर्पण है जहा |

"ग्राहक देवता है "
जैसे जुमलो के बीच
"आज नकद कल उधार "
जैसी पंक्तियों से
जंग लगे पतिलो
ओर दीमक खायी
लकड़ियों वाली दुकाने ,
अब
सिमटती
सहमति सी ,
शहर के
पुराने
उपेक्षित
कोनो में ...
पड़ी खाद बन रही है |
बुढा गए
घाघ दुकानदार
चकाचौध
ओर
प्रचार
की गर्मी से
झुलसे
तपे
अंतिम साँसे गिन रहे है ...

बाजार के
परिचित
ओर
अपरिचित
कोनो में
बहुराष्ट्रीय
प्रतिष्ठित
"ब्रांड" का कब्जा है ...
जिसे
अतिक्रमण कहना
अशोभनीय
ओर
अनागरीय होगा !

किसान
और
साहूकार
का बेटा
जहां
मजदूर बनकर
चाकरी
करने को
लालायित है |
चमचमाती गाड़ियों ,
उन्मुक्त संस्कृती ने
चौंधिया दी है
युवान आँखें
जो
देख सकती थी
स्वदेश
ओर
सुदेश
से कही आगे |

सेक्स ओर भोग
परोसा जा रहा है
खुला ...
सरकार !
बना रही है
व्यवस्था को
लचीली / लिजलिजी
जो
वैसे
कभी
नहीं बदली
कितनी आत्महत्याओं
आंदोलनों के बाद

अब
लोकतंत्र
और
धर्मनिरपेक्षता
के मुखौटे
बेचते
दलाल ...
दाल ओर चीनी
के सहारे
भाग्यविधाता
बन
सरकार बदलते है !
विचार
विचारधाराएं
बदलते है !!
जैसे
पूरे आधे नंगे मोडल
उतारे हुवे
कपडे बदलते है

अरे
शर्म बेचकर ही
सब हासिल है अगर
तो
सब हासिल चुका कर
एक पल का सुकून
ओर
खुद से आँख मिलाने
की हिम्मत
खरीद कर बताओ
फिर
फैसला करना
वक़्त से ये होड़
कितनी
महंगी पड़ी ???

धर्म ,
इंसानियत,
नैतिकता
और
भावनाओं तक
सब
दाव पर
लगा बैठा है
युग
और
वक़्त
ध्रतराष्ट्र बना
प्रतीक्षा में
बैठा है
मौन
ताकि
सुन सके
महाभारत से
ठीक पहले
पांचजन्य का स्वर
ओर
कृष्ण की बानी
किसी
संजय की जुबानी ...

Saturday, July 3, 2010

सच की बोली !

आज प्रेरणा चाहिए
मुझे भी
और समय को भी
संचित सभी
चुके विवेक
और
रच चुके चूहें
इतिहास |

ठिठोली बन गया
ज्ञान का जरिया
उपकरण सारे
झुनझुने बन
समझ का
मखौल बना चुके

अब सब्जी वाला
भी सुर में लगता है
उससे जो गाते है
गिद्धों और सुवरों
की नैतिकता
भारी पड़ रही है
मानवीय मनीषा पर

यशश्वी धर रहे है
चरणरज चोरों की
सर माथे
धूप सबको दिखती है
सूरज
कही दिखता नहीं

महक का फुल से सरोकार
ख़त्म कर चुके
भावनाओं तक के
ओंछे दुकानदार
अब सिर्फ
सच बचा है
जिसको
खरीदने की औकात
अब तक तो
दिखी नहीं
है कोई !!!
जो सच ख़रीदे ....
खुद बिककर !
बोली एक !
बोली दो !!
....

Thursday, July 1, 2010

सरस्वती-पुत्र, एक विडम्बना !

ये वक़्त भी
गुजर जाएगा
फिर नया कोई
दौर आयेगा |

तब लिखूंगा
कविता
देशकाल
और
समाज पर

मिल जाए
पुरस्कार ,
कुछ राशि ,
रोयल्टी ...वगैरह |

बिटिया का ब्याह
बेटे का ठौर
क्या
कवि की
कोई जिम्मेदारी नहीं ?

साहब !
आप तो
समझ ही नहीं सके
के क्यों
लिखते है
कवि छद्म नाम से ?

क्यों ?
कोई कवि
आगे नहीं चलता
किसी
जनांदोलन में ?

क्यों
प्रसंस्तिया ..
शोक / विरह गीत
और
श्रृंगार रत
रहता है सदा कवि ?

क्यों
उसके अश्रुओं से
नहीं धुलती
उसकी अपनी स्याही
या
क्यों नहीं जल उठत़ा
कागज़
उसकी ज्वलंत लेखनी से ?

क्यों
आखिर क्यों ?
सरस्वती-पुत्र कहलाता
बैठा है
हारा
नाकारा
निस्तेज
अपनी ही माया में
मस्त
सहता क्लेश ,
नियोजित कष्ट !!!