Thursday, February 9, 2012

देस


जहां
मेरे नाम भी 
एक जमीन हो 
जिस पर 
चला सकूँ हल 
बो सकूँ 
सपनों के बीज 
जहां 
सावन 
तकादे ना कराये 
ना ही 
बिन  बुलाये 
बाढ़ / सूखा 
थोप दिए जाए 
जिसके बहाने 
सरकारी अमरबेल 
फिर 
पनप जाए 

मैं तो 
परदेस में 
ईटें बनाता हूँ 
सुना है 
मेरी 
गिरवी 
खपरैल पर 
नेता मुरदार 
वोट 
माँगने आये रहे 

ना 
हम नाही गए 
बटन दबाने 
और 
ऊँगली पर निसान 
अरे 
ये तो ईटा से 
कुचल गयी 
मुद्दा 
हम तो 
कब से 
"देस" गए ही नाही !


Sunday, February 5, 2012

मैं



खोजता हूँ
स्वयं को 
स्वयं ही में 
खो गया हूँ 
मैं !
कुछ और था 
कुछ देर पहले 
अब 
कोई और 
हो गया हूँ 
मैं !

Wednesday, February 1, 2012

धीरे धीरे


धीरे धीरे 
सब बदलता है 
वक्त भी 
समाज भी 
व्यक्ति भी 
साधन 
और 
साध्य भी 
मगर 
सोच ...
नहीं !
कुछ तो चाहिए 
वर्ना 
जिन्दगी 
मायनेदार ना हो जाए !


Thursday, January 19, 2012

मिटटी में खेलता बचपन



खो ना जाए मिटटी ही में 
उसे पनपने दोगे ना !
अपने भागते जीवन में 
उसे भी जगह दोगे ना !
कुचल तो नहीं दोगे ?
अंधी दौड़ में 
कोई बचपन 
गति 
अन्धविकास की
थाम कर 
कुछ क्षण 
उसे राह दोगे ना !
वो क्या देगा ?
ये ना समझ पाओगे 
अभी 
तो भी 
झंझावत में समय के 
किनारे ढूंढ़ती 
मानवी जीवन रेखा के 
संबल के खातिर ही 
अकिंचन बात मेरी 
मान लोगे ना !


Saturday, January 14, 2012

सरकारी स्कूल


राम रहीम 
सरजू बिरजू 
पोलियो वाली दुलारी 
सब 
कट्ठे ही 
रास्ता देखते है 
टीचर दीदी का 
जिसके सम्मान से 
गाव का लाला 
और सरपंच तक 
ईर्ष्या करते है
यही कही 
पढ़ाया जाता है 
पाठ 
समाजवाद का 
जिसे 
कागजो के शेर 
और कुर्सियों के कारीगर 
बदलने की कोशिश 
करते रहते है 
और हंसती रहती है 
उनकी टीचर दीदी 
नहीं टोकती उन्हें 
उनकी ऐसी 
नादानी पर !


Thursday, January 12, 2012

कुछ ख़त अजनबी पते पर अपनो के नाम ...



पहला ख़त 
मेरे गाव की मिटटी को 
जिससे ही पाया 
प्यार दुलार 
जहा अंकित हुवे 
स्वप्न 
आज भी 
अमिट है 
हे मातृभूमि !
सदा वंदनीया !
तुझे प्रणाम !
भूली नहीं होगी 
तू मुझे 
मैं भले भूल जाऊं 
स्वार्थी हो परवश |
जैसे कण कण धूल का 
सहेजा है 
सब अच्छा बुरा 
तूने 
आदि से अब तक 
मुझे भी विश्वास है 
तेरे आँचल में 
मेरी जगह 
आज भी खाली है |

दूसरा ख़त 
सभी बुजुर्गो को 
माता पिता 
दादियो नानियों 
और असंख्य रिश्तों को 
जिन्होंने 
मुझे मेरा नाम दिया 
आज भी 
पुकारता है कोई 
जब उस नाम से 
लगता है 
तुम्ही ने पुकारा है 
जब कोई हाथ 
छू जाता है 
शीश को 
लगता है 
तुम्ही ने दुलारा है
तुम्हारा प्यार 
मैं अब सबमे बाटता हूँ 
अकेले में 
भीतर ही 
ख़त सब तुम्हारे 
नित वाचता हूँ 
आशीष दो 
बनू सबका दुलारा 
और मिलु जब 
तुमसे कही ... कभी 
तो नाज हो तुमको 
तुम्हारा 
नालायक , नटखट ... राजदुलारा 

तीसरा ख़त 
अपने बाल सखा को 
जो छूट कर भी 
नहीं छूटे 
ना जाने कितनी बार 
माने फिर रूठे 
मना लेने का भरोसा 
अब भी है मुझको
बस रूठने का हक़ 
बनाए रखना 
यू ही 
स्मृतियों में आना रोज 
रौनक जीवन में 
सवाप्नो में ही 
सदा लगाए रखना |

चौथा ख़त 
गुरुजनों को 
सादर 
क्या कहूँ उनसे 
अभी 
कर्मरत हूँ 
लिख रहा हूँ 
भविष्य 
कठिन भी सरल भी 
सब आपका दिया है 
संबल हो 
छाया हो 
सूरज हो
दर्पण हो 
क्या नहीं हो 
मैं तो केवल 
कृतज्ञता ही 
अर्पण कर सका था 
कर सकूंगा 
सो करता हूँ |

पांचवा और 
अंतिम ख़त 
स्वप्नों के नाम 
चहरे भी 
नाम भी तमाम 
स्वप्नवत ही लगते है 
जीवन भी 
जोकुछ भी है 
पाया खोया 
जो पाना है 
मेल करता हूँ 
तो पाता हूँ 
स्वप्न सच ही होते है 
जैसे स्वपन होते है 
वैसे यकीं भी हो 
तो स्वप्न ही साकार होते है 

जैसे सब मेरे . मैं भी सबका 
सिया राम मय सब जग जानी ,
करहु प्रणाम जोरी जुग पानी ||

जय हो ! शुभ हो ! ...  लाभ भी हो 
अवश्य ही 
हां मगर शुभ हो !


Wednesday, January 11, 2012

अधूरे ख़त ...


तुझे लिखूं तो क्या !
तेरे कितने नाम लिखूं 
तू मेरा है 
सिर्फ मेरा तो नहीं 
तुझे क्या कहूँ 
इसी उलझन में 
कई ख़त 
अधूरे ही 
बिना नाम पता 
स्थगित / अनुत्तरित ही 
पड़े है ...कब से 
मानस के पटल पर ,
ह्रदय के डाकखाने में |


Tuesday, January 10, 2012

कागज़ की नाव है कविता


कविता 
जैसे कागज़ की नाव 
समय सागर में 
किनारे ढूंढ़ती सी 
तैरती रहती है 
नि:स्पृह ...
छूती है 
परम को सहज ही 
नहीं छूती 
समय को 
या समय ही 
तैरता है 
उस नाव के नीचे 
उसी परम-आदर का 
शब्दरूप है "गीता"

भगवत गीता रूपी कालजयी रचना करने वाले मात्र कवि श्री कृष्ण के परम चरणों में सादर समर्पित , उन्ही की रचना ... जय श्री कृष्ण !


Monday, January 9, 2012

एक नि:शब्द कविता के लिए !


सोचता हूँ 
एक कविता 
ऐसी भी लिखूं 
जिसमे 
कोई शब्द ना हों 
जो 
शोर ना करे 
सुनाई ना दे 
दिखाई ना दे 
जो शांत हो ...

जैसे 
बुद्ध है 
जैसे समय है 

नहीं 
वो घडी है 
जो टिक टिक है 
समय तो चुप है 
चलता है बेआवाज 
फिर भी 
 बदल देता है ... सब !

नहीं 
समय नहीं बदलता 
हम ही 
समय के सापेक्ष 
बदलते है ...

हां 
समय धुरी है 
काल्पनिक जगत-वृत्त की 
जिसके 
निकट दूर 
हम बटे है 
बट रहे है 
कण कण हो 
और दुरूह
और क्लिष्ट हो चले है 
बाहर भी 
भीतर भी ...

या तो 
टूट जाना होगा
इकाई तक 
या 
जुड़ना ही होगा 
इकाई तक 
तब तक 
शब्द  ही है 
हमारे बीच 
मैं भी 
कविता भी ...

बस तभी तक तो
सब शब्द ही है 
तभी तक |


Thursday, January 5, 2012

अंतर्युगांतरण


मोर मुकुट धर 
लकुटी धर 
वंशीधर 
पीताम्बर धर 
गिरिधर 
शंख चक्रधर 
लीलाधर नटनागर 
धरनीधर माधव 
केशव अनंतजित 
अनंतकर 
रथ धर 
रण कर 
रणछोड़ 
रणमध्ये गीता कर 
मोक्ष धर 
योगक्षेम कर 
ओंकार रचनाकर
युग धर 
युगांत कर 
हे योगी कर्मरत 
कर्मफल स्पृहारहितं  
कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम 
ॐ नेति नेति कर 
वेद वेदान्त कर 
त्वं अखिलं विश्वं विभुं 
करुणाकरम  रघुवरं 
हे नीलाभ ज्योतिधरम 
श्रीधरं माधवं अच्युतम केशवं 
नमामि  त्वं अनंत धुतिम 
अद्भुतम निरतं निरामयम 
अनघम अगम करुनामयं 
त्वं तत तत्त्वं त्वं अखिलं जगतं 
सारं संभूतं उद्भवं अनन्तकम 
हे हरी: ! हे  हरी: !! हे हरी: !!!
पाहि माम , पाहिमाम प्रभू ...