Wednesday, June 8, 2011

अथ भ्रष्टासुर वध कथा - भाग ३


क्रमश: भाग   से  आगे 
ना दिल्ली ही नयी थी 
ना जनदेव दिल्ली में नए थे 
पर पतिता राजनीति के 
पैतरे हर पग नए थे 
बहुत पहले 
छल से 
संविधान ले लिया था 
दिल्ली ने ठग कर 
वो दिल्ली 
अब देश को 
ठेंगा दिखाती थी 
लावारिस क्रांतिकारियों की
लाशें बेच खाती थी 
वही कुछ 
मर चुके मानवी शरीरों में 
भुस भर 
बैठा दिया था 
राज भवनों में 
जो अन्यथा 
मिटा दिए जाने थे 
गुलामी के प्रतिको से 
वहीँ 
जंतर मंतर पर 
और गांधी की समाधि पर
वैसे तो गांधी ज़िंदा था 
मगर रोज मार दिया जाता था  
किसी नोट पर 
छाप दिया जाता था 
बैठ गए जन देव 
चौराहे पर 
और जनता 
जो चमत्कारों से जगती थी 
उमड़ आई हजारों में 
माध्यम भी थे खड़े 
इन कतारों में 
जन देव प्रसन्न थे 
आत्ममुग्ध 
भूल बैठे 
दिल्ली तो ठगों की
आदिम नगरी है 
अमृत छलकाती जिव्हा से 
विष की गगरी है 
दिया गया 
अश्वासनी प्याला 
मुहरबंद राजपत्रों पर 
जनदेव चौके तो थे 
पर जानते थे 
कोई छल अवश्य ही 
है नहीं तो होगा 
मगर वो जानते थे 
उसका परिणाम क्या होगा 
बली जब छल से 
जीत जाता है 
समझो 
अपने विनाश का 
बीज बोता है 
आगे फिर 
वही हुवा 
जो 
हर युग में 
हर महाभारत में 
हुवा है सदा ही 
होता है 
क्योंकि 
भक्तों !
हर दिल्ली के बगल में
अवश्य ही  
एक कुरुक्षेत्र होता है |

सो जनदेव लगे थे सत्ता के लोभ समुद्र को मनाने में पर लगता नहीं कि सेतुबंध के सिवा कोई और राह रही थी , मैं आगे कैसे कहू समय ने भी मुझसे इतनी ही कथा जो कही थी ... तो विश्वास रखे भक्तों , बोलिए जय जय जनदेव !


Tuesday, June 7, 2011

मिथक को पोसते हम इंडियन



ना एक अद्वितीय नाम ही 
दे पाए विश्व को 
उसने कहा इंडियन 
और हम 
इंडियन हो गए 
कुछ नाखुदा सरफिरे 
आधी रात को 
बैठे और जमीन बाट आये 
बोले 
यही आजादी है 
विभाजन की  पीड़ा 
महाजनी सूद 
शिक्षा के अकाल 
महामारियों की बाढ़ में 
बहता कोई जन समूह 
जा पहुहा लालकिले 
रेडियो पर 
तुरही बजा दी गयी 
क्यों ?
कभी दिल्ली 
बन जाती है 
राजधानी 
कभी 
दिल
कभी एक राज्य 
क्यों ??
नहीं मिलती
दक्खिन या पूरब को 
केन्द्रीय भूमिकाएं 
मैं कहता हूँ 
तुम कब नकारोगे 
इस कागजी देश को 
जिसे दुनिया ने 
ताश के जोकर की तरह 
कब का छाट रक्खा है 
क्या अब भी 
रीढ़ हीन कापुरुषों को 
पिछलग्गू नारियों को 
संसद नाम के 
अभिजात्य क्लब भेजने 
किसी उजड़ी सरकारी स्कुल में 
बिकी हवी पुलिसिया हुकूमत से 
डंडे खाकर बेइज्जत होकर 
वोट डालने जाओगे 
अगर अब भी 
थोड़ी आत्मा 
और 
स्वतन्त्रता की  ललक 
बची हो 
तो 
अगली ही सांस पर 
नकार देना 
ऐसे खोखले प्रजातंत्र 
और 
दम्भी संविधान को 
जो भीड़ देख कर 
स्वागत नहीं करता 
हग देता है  |
 


Monday, June 6, 2011

अर्धसत्य की लाश सा अधमरा लोक(?)तंत्र



भरे पेट गाल बजाता 
भोग में डूबा है 
भीड़ तंत्र 

आबरू बेचता 
मां  बहनों की 
दलाली खाता हुवा 
बेशर्म तंत्र 

खून पीता 
भूखी आंतो को 
परोसता हुवा 
भेड़िया(गीदड़) तंत्र 

मर चुकी आस्था से 
मृत शरीरो को 
भोगता भभोड़ता 
नीच तंत्र 

खबरे पढ़ता 
खबरे गढ़ता 
बहाने खोजता 
कोसता 
अपने खोल में 
खूब गरजता है 
कछुवे सा
भीत तंत्र |