Tuesday, January 9, 2024

व्याख्याएँ



एक शब्द में 
समेट लेता था
मैं पहले 

रिश्तें ,
आदर 
और 
संवेदनाएं |

तुमने 
जब तक 
दिए ना थे ...

प्रचलित पर्याय |
नाकारों ने 
पीकदान की तरह
थूक रक्खे है ,
चारो तरफ ...

सरकारी दीवारों ,
धर्मशालाओं 
और मंदिरों के 
पवित्र प्रान्गनो तक...  

द्विअर्थी मुहावरे 
जिनके बीच 
दुरूह हो गयी है ,
आत्मीय शब्दों की 
सहज व्याख्याएं !

और हम 
हैं कि 
घुसने देते है ,
इस शब्द प्रदूषण को 
घर के भीतर !!

जहां 
बच्चे भी 
तुतलाते हुवे 
जवान हो गए है ...

अचानक !!!.....
नहीं बंधू !
सब अचानक ही तो 
नहीं होता ना ???
हमेशा ...



5 comments:

  1. 'द्विअर्थी मुहावरे
    जिनके बीच
    दुरूह हो गयी हैं
    आत्मीय शब्दों की
    सहज व्याख्याएं '
    ................आधुनिकता और भौतिकता की अंधी दौड़ में खो रहे अपनपन की भावपूर्ण , व्याकुल मन की सुन्दर अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
    Replies
    1. आदरणीय सुरेंद्र सिंह "झंझट" जी ! सादर वन्दे !
      12 बरस बाद स्नेहाभार स्वीकार करे , अति विलम्ब के लिए क्षमाप्रार्थी हु !
      आपका बहुत बहुत आभार , अभिनन्दन !
      आशीर्वाद बनाये रखे !
      जय भारत ! जय भारती !

      Delete
  2. जब धर्म और सम्प्रदाय राजनीति के मोहरे बन जाते हैं तब हम कौन सी नयी उम्मीद पालने का उपक्रम करने का दुस्साहस कर सकते हैं?? द्विअर्थी संवादों के बीच सच में आत्मीयता की परिभाषा ही बदल गई।बहुत गहरी बात कह गये कविराज 🙏

    ReplyDelete
    Replies

    1. आदरणीया रेणु जी ! सादर प्रणाम !
      बहुत कम पाठको ने , उपरोक्त एवं अन्य ऎसी रचनाओं को "कविता" की श्रेणी में रखा है , बहुधा इन्हे "लेख" ही माना गया है !
      बहरहाल मै अभी तक कवि भी नहीं बन पाया हूँ , कविराज बहुत दूर की कौड़ी लगती है , इसे आशीर्वाद मान स्वीकार करता हूँ !
      रचना को पढ़ कर सहज विस्तृत एवं उत्साहवर्धक टिपण्णी करने का हुनर अब लुप्त प्राय: हो चला है , आपकी प्रतिक्रया सर माथे
      आपका बहुत बहुत आभार , अभिनन्दन !
      आशीर्वाद बनाये रखे !
      जय भारत ! जय भारती !

      Delete