नव वर्ष तुम कैसे हो ?
नया वर्ष
बस आने को था
तो सोचा
हाल चाल पुछू
पुछू कि
इस बरस
कैसा रहेगा
लाभ हानि
जमा खर्च का
अनसुलझा गणित
और
कैसी तबियत
रहेगी
दुश्मनों की
रकीबों की
हबीबों की
जानशिनों की
जानना चाहता था
फलसफा भी
हाल-ऐ-दुनिया
हाल - ऐ दिल भी
मगर
दिनों दिन
रातो रात
उछलती
उफनती
महंगाई की बाढ़ में
बह गए
डूब गए
सारे प्रश्न
बस
कुछ
बचे खुचे
सपनों की गठरी
सर पर लादे
शरणार्थी सा
बैठा हू
कि
आओ नव वर्ष
बचा लो
मुझे
और
मेरे निरीह देश को
इन बेईमान
और
मक्कार नेताओं से
जो
ना मरने देते है
ना जीने ही देते है
लूटते है दोतरफा
और
बिना टेक्स
ना तो
मरहम देते है
ना
मरने की इजाजत ही देते है
आशा ही करता हू
कि
नया वर्ष
शुभ होगा
उनके लिए भी
जिन्हें
हर बरस
इन्तेजार रहता है
कि
नया बरस
केलेंडर के साथ
बदल देगा
बूढी
मरियल
लाचार
व्यवस्था को
ताकि
जवां खून
दौड़ सके
पिछड़ते
देश की रगों में
और
लाचार
बूढों को
मिले कुछ विश्राम
क्योंकि
देश के सर्वोच्च आसन
सोने के लिए तो
नहीं बने है ना |
फिर कोई लोभ का रावण , साधू सा वेश धर वोट मांगता है | शहीदों ने खिंची थी जो लक्ष्मण रेखा वो फिर लहू मांगती है || Tarun Kumar Thakur,Indore (M P) "मेरा यह मानना है कि, कवि अपनी कविता का प्रथम पाठक/श्रोता मात्र होता है |"
Monday, December 27, 2010
Sunday, December 26, 2010
पताकाएं
आकाश छूती
लहराती
इठलाती
शिखर पर
आच्छादित है
मुखर है
आह्लादित भी
मानो
वही चरम हो
समस्त
उत्कर्ष का
वैभव का
संकल्प का
नीचे
पड़ी है
पुरानी पताकाएं
धूसरित
चीथड़ों में
बदलती
सिमटती
संकुचाई सी
अभी
कोई भाई
नमन करता
नई पताका को
पाँव धर
गुजर गया था
दिन में
कई बार
घिसटते
फटते
चिंदी चिंदी हो
बह जाएगा
उड़ जाएगा
उसका
हर रेशा
कोई
जा पहुचेगा
नई पताका के
बहुत निकट भी
तब
शायद
उसे भी
इसकी मुक्ति पर
रश्क तो होगा |
लहराती
इठलाती
शिखर पर
आच्छादित है
मुखर है
आह्लादित भी
मानो
वही चरम हो
समस्त
उत्कर्ष का
वैभव का
संकल्प का
नीचे
पड़ी है
पुरानी पताकाएं
धूसरित
चीथड़ों में
बदलती
सिमटती
संकुचाई सी
अभी
कोई भाई
नमन करता
नई पताका को
पाँव धर
गुजर गया था
दिन में
कई बार
घिसटते
फटते
चिंदी चिंदी हो
बह जाएगा
उड़ जाएगा
उसका
हर रेशा
कोई
जा पहुचेगा
नई पताका के
बहुत निकट भी
तब
शायद
उसे भी
इसकी मुक्ति पर
रश्क तो होगा |
Tuesday, December 21, 2010
मोक्ष की शतरंज
एक प्यादा
पडा था उपेक्षित
कुछ टूटे खिलौनों के पास
दोस्त ने उठाया
पूछा
होकर उदास
क्यों मित्र
तुम तो बुद्धिजीवी हो
भावनाओं से ऊपर
क्या कोई व्याख्या है
जो
इस मोहरे को
समझ सके
समझा सके
मैंने हंसकर
फिर
तनीक गंभीर हो
विषय को छुवा
कहा
मित्र
उससे पहले
उस बिसात की भी
दास्ताँ कुछ कहूंगा
वरना
अधूरा ही होगा
जो कहूंगा
एक दिन
यू ही
खेलते अचानक
झगड़ पड़े दो भाई
बचपना था
बात भी थी
उतनी ही छोटी
जितना
उनका बचपन था
फाड़ करके
दो बिसाते कर दी गयी
उस दिन
फिर
खेलते रहे
वो दोनों
अपनी अपनी बाजिया
अपनी बिसातों पर
जो
उनकी ही तरह
अधूरी थी
फिर
एक दिन
मोहरा मोहरा
खोते खोते
ये प्यादा बचा है
इसकी तो
नियति ही है
पिटना
मरेगा ही
चाहे मार कर मरे
कभी किसी बिसात पर
फिर चढ़ेगा
इतराएगा
मरेगा मारेगा
कभी कभी तो
बन बैठेगा वजीर
और
कुछ पल
हुक्म भी चला लेगा
मगर अभी
ये मौन है
ये
अभी
ज्ञात मोक्ष है!
और
इसके खो चुके साथी भी
जब तक
चढ़ा नहीं दिए जाते
चुन नहीं लिए जाते
किसी मजबूरी के एवज
तब तक
उनका भी
अज्ञात मोक्ष है !
समझो मित्र
तो
आसान लफ्जों में
मुक्ति ही
मोक्ष है
नहीं तो
मोक्ष भी
बस
अंतराल है |
पडा था उपेक्षित
कुछ टूटे खिलौनों के पास
दोस्त ने उठाया
पूछा
होकर उदास
क्यों मित्र
तुम तो बुद्धिजीवी हो
भावनाओं से ऊपर
क्या कोई व्याख्या है
जो
इस मोहरे को
समझ सके
समझा सके
मैंने हंसकर
फिर
तनीक गंभीर हो
विषय को छुवा
कहा
मित्र
उससे पहले
उस बिसात की भी
दास्ताँ कुछ कहूंगा
वरना
अधूरा ही होगा
जो कहूंगा
एक दिन
यू ही
खेलते अचानक
झगड़ पड़े दो भाई
बचपना था
बात भी थी
उतनी ही छोटी
जितना
उनका बचपन था
फाड़ करके
दो बिसाते कर दी गयी
उस दिन
फिर
खेलते रहे
वो दोनों
अपनी अपनी बाजिया
अपनी बिसातों पर
जो
उनकी ही तरह
अधूरी थी
फिर
एक दिन
मोहरा मोहरा
खोते खोते
ये प्यादा बचा है
इसकी तो
नियति ही है
पिटना
मरेगा ही
चाहे मार कर मरे
कभी किसी बिसात पर
फिर चढ़ेगा
इतराएगा
मरेगा मारेगा
कभी कभी तो
बन बैठेगा वजीर
और
कुछ पल
हुक्म भी चला लेगा
मगर अभी
ये मौन है
ये
अभी
ज्ञात मोक्ष है!
और
इसके खो चुके साथी भी
जब तक
चढ़ा नहीं दिए जाते
चुन नहीं लिए जाते
किसी मजबूरी के एवज
तब तक
उनका भी
अज्ञात मोक्ष है !
समझो मित्र
तो
आसान लफ्जों में
मुक्ति ही
मोक्ष है
नहीं तो
मोक्ष भी
बस
अंतराल है |
Thursday, December 16, 2010
राम !
राम !
शिव के लिए
बस एक बार
और
किसी वाल्मीकि
अहिल्या
या
शबरी के लिए
कोटि बार
आखिर
इस नाम रटन में
ऐसा क्या नशा है
कि
हनुमान अब भी
जी रहे है
लड़ रहे है
मृत असुरों की
छोड़ी हुई
आसुरी वृत्तियों
और
चित्त के अनुराग से
जरुर कोई बात रही है
तभी तो
कोई भील..
आदिकवि ,
कोई भीलनी ..
आत्मज्ञानी ,
कोई पतिता..
पाषाण से मनुतनया
और
कोई राक्षस
वैष्णव हो गया |
आखिर
कैसी प्रखरता है
इस "राम" नाम में
जिसने
पाषाण तरा दिए वारिध में
और
जिसका संबल ले
आक्रान्ताओं को
जीत लिया
एक अधुना साधू ने
आज
ऐसे ही तो
नहीं शीश झुकाता
विश्व का जटिल तंत्र
राजघाट पर
भले फिर
अयोध्या में ना बने
प्रपंच और स्वार्थ का "राम मंदिर"
राजघाट पर
एक राम मंदिर में
आज भी जलती है
राम ज्योत
और जहां
हर धर्मनिरपेक्ष
और साम्यवादी
भूल जाता है
कि
वो खिलाफ खडा है
उसी
"राम" नाम के ...
शत शत नमन है
ऐसे ही
"राम" के जियालो को
के
अब तो फैलने दो
दल वालो
इसके अमर उजियालो को |
खैर
तुम चाहो ना चाहो
एक "राम नामी" ही
बहुत है
हर युग में
जो ललकारेगा
हराएगा
तुम्हारे बल-छल को
फिर
चाहे तुम सामने लड़ो
"राम" के
या
उसी से लड़ो , उसी की आड़ में |
"राम"
ही सत्य है अंतिम
मेरा
तुम्हारा
सभी का
अंत में
"राम" नाम ही सत्य है !
शिव के लिए
बस एक बार
और
किसी वाल्मीकि
अहिल्या
या
शबरी के लिए
कोटि बार
आखिर
इस नाम रटन में
ऐसा क्या नशा है
कि
हनुमान अब भी
जी रहे है
लड़ रहे है
मृत असुरों की
छोड़ी हुई
आसुरी वृत्तियों
और
चित्त के अनुराग से
जरुर कोई बात रही है
तभी तो
कोई भील..
आदिकवि ,
कोई भीलनी ..
आत्मज्ञानी ,
कोई पतिता..
पाषाण से मनुतनया
और
कोई राक्षस
वैष्णव हो गया |
आखिर
कैसी प्रखरता है
इस "राम" नाम में
जिसने
पाषाण तरा दिए वारिध में
और
जिसका संबल ले
आक्रान्ताओं को
जीत लिया
एक अधुना साधू ने
आज
ऐसे ही तो
नहीं शीश झुकाता
विश्व का जटिल तंत्र
राजघाट पर
भले फिर
अयोध्या में ना बने
प्रपंच और स्वार्थ का "राम मंदिर"
राजघाट पर
एक राम मंदिर में
आज भी जलती है
राम ज्योत
और जहां
हर धर्मनिरपेक्ष
और साम्यवादी
भूल जाता है
कि
वो खिलाफ खडा है
उसी
"राम" नाम के ...
शत शत नमन है
ऐसे ही
"राम" के जियालो को
के
अब तो फैलने दो
दल वालो
इसके अमर उजियालो को |
खैर
तुम चाहो ना चाहो
एक "राम नामी" ही
बहुत है
हर युग में
जो ललकारेगा
हराएगा
तुम्हारे बल-छल को
फिर
चाहे तुम सामने लड़ो
"राम" के
या
उसी से लड़ो , उसी की आड़ में |
"राम"
ही सत्य है अंतिम
मेरा
तुम्हारा
सभी का
अंत में
"राम" नाम ही सत्य है !
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