Tuesday, June 20, 2023

कही अनकही कविता हूँ मैं

Writing Images | Free Photos, PNG Stickers, Wallpapers & Backgrounds -  rawpixel


समर शेष बहुत जीवन का
अभी कहा जीता हूँ मैं ,
बाहर से बैचैन बहुत 
भीतर तक रीता हूँ मैं !

मौन मंथन रत एकाकी ,
विकल हला पीता हूँ मैं !
एक स्वांस में मरा अभी ,
एक स्वांस जीता हूँ मैं !

संग्राम बीच ही रची गयी ,
विस्मृत, विगत, रत गीता हूँ मैं !
मर्यादा की बलिवेदी पर, चिर 
अर्पित, मानस धर्मा सीता हूँ मैं !

लोभ बहुत है, मोह बहुत 
करने कहने को अरमान बहुत !
क्या कहूँ ? समय बीता मुझ पर ,
या विराट समय पर बीता हूँ मैं ?

सहज बनावट, पर नहीं सरल ,
अगढ़, निपट, ढिठा हूँ मैं  !
पकड़ नहीं पाया खुद को ,
स्व से चिपटा चीठा हूँ मैं !

क्या करू स्वयं को अनुदित ,
कटु अमिय, करील सा मीठा हूँ मैं !
बाहर से बैचैन बहुत ,
भीतर तक रीता हूँ मैं !




Thursday, June 15, 2023

पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः - धर्म के आचरण में भी दुविधा, क्यों ? प्रभु !!

 


अर्जुन उवाच  कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन | इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन || ४ ||

श्रीमद्भगवद् गीता  अध्याय 2 -भाग २

 

श्रीमद्भगवद् गीता  अध्याय 2 -भाग १  से आगे



अर्जुन बोला तब श्रीकृष्ण से...
 
हे मधुसूदन ! हे अरिहंत !!
सामने मेरे खड़े द्विज-जन ,
पूज्य है , पवित्र  है
मुझे प्राणप्रिय भी तो है, वही !
है अरु अतिशय महान भी !

सर्वोपरि, वे गुरु द्रोण !
जिनका शिष्य होना ही ,
परम सौभाग्य है मेरा !
है वही मेरी पहचान भी !

वो पितामह , वटवृक्ष से ,
पूज्य  भी ! वयोवृद्ध भी !!
कुरु कुल भूषण !
युगपुरुष, निष्कलंक ,
जो शोभा है द्धापर की 
ज्यो युग सहिंता हो स्वयं !

क्या चला पाउँगा ,
बाण उनपर मै कभी ?
कल्पना भी की नहीं ,
वह कर्म क्या कर पाउँगा ??

भिक्षा का अन्न भी
कही श्रेष्ठ है , उस रुधिर सने
शापित राज कथित सुख?भोग से ??

धर्म क्या है ?
लड़े  इनसे ,
या चरणों  में ,
शस्त्र इनके त्याग दू ?
जीत कर भी ,
इनसे भला क्या ,
मिलेगी बस हार तो ??

जिनके स्नेह, कृपा, सानिध्य ,
जिनसे बंधुत्व /सौहार्द ही में ,
जीवन का मोल है कुछ अर्थ है !
ज्येष्ठ पिता के , स्वजनों
सम्बन्धियों का कुलनाश ! आह!!
है सर्वथा अनुचित ,
अनर्थ बस केवल अनर्थ है !!

कायरता कहु इसे ,
या हृदय की दुर्बलता ?
कर्तव्य-विमूढ़ ,
शरण ढूंढता ,
गुरु मान कर ,
बस आप ही से
पूछता हु , अरिसूदन !!

अत्यंत अपरिचित ,
अप्रत्याशित ,
यह शोक महान ,
मिटता नहीं , वरन
बढ़ता ही दिख रहा
विजय के बाद भी
भावी सुखों ? के अति, उपरांत भी  .... 

न योत्स्यामि गोविन्द !....

संजय बोला, तब ,
राजा / पिता धृतराष्ट्र से !
"युद्ध नहीं करूंगा "
यही राजन !
अहो ! स्पष्ट यही तो कहा !
कहकर चुप हो गया
पृथापुत्र भी , अस्तु संजय भी |

प्रश्नो की
अनवरत झंझा ,
भावी पर मनमानी की
कैसी तत्परता !

अंधा नरेश भी
देख पाता था मानो
धर्म की तुला में
कही भारी हो चले थे 
पाण्डु पुत्रों के अतुल्य
त्याग,तप और मनुजता !

छिपा लेना चाहता था ,
हठी , कुतर्की , किससे ?
संजय ही से तो ?
अपने हर मनोभाव को |

जिसे मिले हो दिव्य चक्षु
वह ताड़ ही गया था ,
अधर्मी के बुझे नेत्र दीपों में
आशा अभिलाषा की
कुंठित  पतित ,क्षणाभ को
 
प्रभुकृपा से प्रयास जारी है ....