आयाम से परे ...हम - तुम !
मेरी सीमाएं 
मुझे 
बांधती है 
तुमसे 
और 
तुम्हे लगता है 
कि
मैं 
तुम्हारी सीमाओं में 
बंध सकूंगा 
किसी तरह 
कभी 
तुम्हारा 
यही चाहना 
खिंच देता है 
हर बार 
एक लकीर 
जिसे पार करना 
मेरी सीमा से परे है 
और 
जो 
सिमटी हुई है 
तुम्हारी 
अपनी परिधि  के 
बहुत भीतर 
आत्म परिचय 
और 
जीवन दर्शन से 
सर्वथा अनभिग्य करती 
तुम्हे 
तुम 
और 
तुम्हारे बीच कि 
वह 
रेखा 
मैं देख सकता हू 
मगर 
उसे मिटाने को 
लांघनी होगी मुझे 
तुम्हारी परिधि 
और 
तुम हो 
कि 
इसे उपलब्धि मान 
आत्ममुग्ध 
जा बैठी हो 
किसी और ही बिंदु पर 
जो 
परे है 
इस पूरे आयाम से 
जिसका समाधान 
शायद 
मैं कर पाता 
गर 
तुम यहाँ  होती / कभी / बस एक क्षण ...
तुम
ReplyDeleteऔर
तुम्हारे बीच कि
वह
रेखा
मैं देख सकता हू
मगर
उसे मिटाने को
लांघनी होगी मुझे
तुम्हारी परिधि
गजब कि पंक्तियाँ हैं ...
बहुत सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...
सोचने को मजबूर करती है आपकी यह रचना ! सादर !
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