Friday, October 22, 2010

"जय श्री कृष्ण "

"भागवत गीता " के नित रसपान के बाद , अनायास ही अन्य संदर्भो में जब दुबारा झांकने का अवसर मिला तो पाया कि उन संदर्भो में झांकने कि द्रष्टि परिपक्वता की अगली पायदान पर थी. बहुत सोचा तो पाया कि जिस प्रकार जीवन कि घटनाओं और संस्मरणों से हम सीखते है ,वह हमारे परिपक्व होने की राह को दुष्कर और दीर्घ बना देती है, और वही जब "भागवत गीता " के आश्रय में रहते, हम मात्र किसी और पर घटित / कल्पित संस्मरण को सुनने मात्र से ही उसका सारभूत अनुभव सिद्ध कर जाते है, और ये सब और अनेक अन्य विभूतियों का संचय व पल्लवन / पुष्पन इतनी सहजता से जीवन वृत्त में घटने लगता है कि लगता है , महात्मा अर्जुन कि ही तरह हमें भी एक सारथी मिल गया है जो गाता जा रहा है "योग्क्षेम्यम्वाहाम्य्हम "|

जीवन कि कठिनाइया और क्लिष्ठातम मनोदशाओं और असाध्य्प्रतिता व्याधि / दुर्योग के निवारण कि इस सुगम नौका जिसके खेवनहार स्वयं श्रष्टा है, उस नौका में विहार करते हम कष्ट में हो यह नितांत असंभव है | बस इसी भावना को संप्रेषित करने का दुस्साहस और अकिंचन प्रयास किया है , आशा करता हू कि "भागवत गीता" के पठान / पाठन से अधिक से अधिक बंधू लाभान्वित होते ही रहेंगे |

"जय श्री कृष्ण "

Thursday, October 14, 2010

तिलिस्मों के देश में

तिलिस्मों के देश में
अब तक
बस
तिलिस्म ही
बुने गए है
नींद और ख्वाब
जो
आजकल
मुफ्त मिलते है
बाटे जाते है
रोटी से सस्ती
कीमत पर
थोक की थोक
टीवी और समाचारों के मार्फ़त
एक पूरी पीढ़ी
जी रही है
बुना गया यथार्थ
और
बड़ी बेशर्मी से
जिसके विवेक
और
प्रज्ञा को
किया जा रहा है
कुंद
छिनकर
मासूमियत
सौपे जा रहे है
भोग
भीड़
और
भीत के बीज
जो बोने है
उन्हें
आगे
ताकि
"उनकी"
अगली पीढ़ी को
मिल सके
आदर्श गुलाम

आदमी का कद
छोटा होता जा रहा है
हर उपलब्धि के साथ
पढ़ाया जा रहा है
लिप्सा की पाठशालाओं में
वेतालों को
तर्क सिद्धि का पाठ

Monday, October 11, 2010

आयाम से परे ...हम - तुम !

आयाम से परे ...हम - तुम !
मेरी सीमाएं
मुझे
बांधती है
तुमसे
और
तुम्हे लगता है
कि
मैं
तुम्हारी सीमाओं में
बंध सकूंगा
किसी तरह
कभी

तुम्हारा
यही चाहना
खिंच देता है
हर बार
एक लकीर
जिसे पार करना
मेरी सीमा से परे है
और
जो
सिमटी हुई है
तुम्हारी
अपनी परिधि के
बहुत भीतर
आत्म परिचय
और
जीवन दर्शन से
सर्वथा अनभिग्य करती
तुम्हे

तुम
और
तुम्हारे बीच कि
वह
रेखा
मैं देख सकता हू
मगर
उसे मिटाने को
लांघनी होगी मुझे
तुम्हारी परिधि
और
तुम हो
कि
इसे उपलब्धि मान
आत्ममुग्ध
जा बैठी हो
किसी और ही बिंदु पर
जो
परे है
इस पूरे आयाम से
जिसका समाधान
शायद
मैं कर पाता
गर
तुम यहाँ होती / कभी / बस एक क्षण ...

Saturday, October 2, 2010

फैसले पर प्रतिक्रिया !

एक ठेलेवाला
गरिया रहा था
दो दिन की
रोजी के घान पर

एक बच्चा
चिंतित था
पढाई में
पिछड़ने पर
हालाकि
कुछ
बच्चे
खुश थे
के
खेल पा रहे थे
पास पड़ोस के
मैदानों में

शहर
बुझा बुझा
अनबूझा
कुछ
डरा सहमा लगा

समाचार
सधे सधे से रहे
पड़ोसी
सटे सटे से रहे

गाव
जो
बाढ़ से नहीं घिरे थे
या जो
अभाव से परे थे
शहर बनने की
प्रसव वेदना में
ये दर्द भी
सह रहे थे

मंदिर
सुबह की आरती
और
मस्जिदे
जुम्मे की नमाज
से ज्यादा
कभी
सरोकार में ना रही थी
पहले कभी इतनी
अचानक
हर गेरुआ पत्थर
और
दूब की चादरों वाली
हरी मजार
बेसबब
नहीं रह गयी थी

बाजार
ठन्डे थे
सौदे गर्म थे
दिल
सुलग रहे थे
मगर
अल्फाज
समझौतों से नर्म थे

ज्वालामुखी पर
पत्थर
तो
रख दिया जनाब
बड़ी खूबसूरती से
मगर
सुख चुके
रक्त के धब्बो
और
टूट चुकी
सदियों पुरानी
सद्भाव की जंजीर का
क्या है कोई जवाब ?