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Saturday, October 2, 2010

फैसले पर प्रतिक्रिया !

एक ठेलेवाला
गरिया रहा था
दो दिन की
रोजी के घान पर

एक बच्चा
चिंतित था
पढाई में
पिछड़ने पर
हालाकि
कुछ
बच्चे
खुश थे
के
खेल पा रहे थे
पास पड़ोस के
मैदानों में

शहर
बुझा बुझा
अनबूझा
कुछ
डरा सहमा लगा

समाचार
सधे सधे से रहे
पड़ोसी
सटे सटे से रहे

गाव
जो
बाढ़ से नहीं घिरे थे
या जो
अभाव से परे थे
शहर बनने की
प्रसव वेदना में
ये दर्द भी
सह रहे थे

मंदिर
सुबह की आरती
और
मस्जिदे
जुम्मे की नमाज
से ज्यादा
कभी
सरोकार में ना रही थी
पहले कभी इतनी
अचानक
हर गेरुआ पत्थर
और
दूब की चादरों वाली
हरी मजार
बेसबब
नहीं रह गयी थी

बाजार
ठन्डे थे
सौदे गर्म थे
दिल
सुलग रहे थे
मगर
अल्फाज
समझौतों से नर्म थे

ज्वालामुखी पर
पत्थर
तो
रख दिया जनाब
बड़ी खूबसूरती से
मगर
सुख चुके
रक्त के धब्बो
और
टूट चुकी
सदियों पुरानी
सद्भाव की जंजीर का
क्या है कोई जवाब ?