Monday, June 28, 2010

थूंक के छींटे ..अगली पीढ़ी तक !

उसने जब
सड़क पर थूका
बेलिहाज
बेअदब
शायद
बेसबब नहीं था |
रोज
सैकड़ो हजारों
की ये हरकत
जिसमे
कुछ अजब नहीं था ,
खटकी थी
अटकी थी
चंद निगाहों में |

जिन्हें
जीवन
गिनती सा सरल
और पहाड़े जितना
कठिन लगा होगा |
..अब तक |

"मास्साब" वो आप थे ?
नहीं ! नहीं !
कोई हमशक्ल रहा होगा |

Sunday, June 27, 2010

क्रान्ति !!! , कब ????

क्रान्ति के पूर्व
होती है छटपटाहट
भीतर
कही कोने में
नक्कारखाने में
तूती की तरह
जैसे
रात के अँधेरे में
करते हो शोर
ढेर सारे झींगुर
मगर ...
क्रान्ति नहीं होती
लोग जागते है
या
जब अलसभोर हो
या
जब सिंह दहाड़ते है
निकट ,
निपट,
निर्भीक !

Monday, June 21, 2010

मेरी अपनी एक डगर है

कोई साथ चले ना चले
मुझे भीड़ से क्या लेना |
मेरी अपनी एक डगर है
मुझे भीड़ से क्या लेना ||

भीड़ मिटा देती स्व को |
भीड़ बड़ा देती भव को |
मै लिए सहज समभाव |
मुझे भीड़ से क्या लेना ||

भीड़ फिरा देती है सोच |
जगा कर उन्मादित जोश |
रुग्न ज्वर सी वेदनामय ,
मुझे भीड़ से क्या लेना ||

कसमसाता विवेक मुट्ठियों में
लहराता ज्यों सागर पर फेन |
जो अबूझ पहेली , हो स्वयं प्रश्न
मुझे भीड़ से क्या लेना ||

मेरी अपनी एक डगर है
मुझे भीड़ से क्या लेना ||

Friday, June 18, 2010

याद है मुझे कब पिछली बार हँसी थी वो

याद है मुझे कब पिछली बार हँसी थी वो ,
मेरी ही किसी बात पर बहुत हँसी थी वो |
जाने तब क्या सोच कर बहुत हँसी थी वो ...
खैर जो भी हो मगर क्या खूब हँसी थी वो |
हंसते हुवे पल्लू से ढँक लिया था चेहरा
आँचल के पार बिखर गयी ऐसी हंसी थी वो |
मैं भी हंसा था साथ था हाथों में उसका हाँथ
लेकर हाँथ मेरे साथ सारी रात हँसीं थी वो |

नहीं भूलती उसकी खनक आज भी सुनता हूँ
किसी घुंघरूं किसी पायल कि सी हँसी थी वो |
रूप और भी उजास से रंगों से भर गया था उसका
कोई भूलना भी चाहे ना भूले ऐसी हँसी थी वो |

एक अहसान है मुझपर उसका चुकाए नहीं चुकता
दिल उदास था उसका थी परेशान फिर भी हँसी थी वो |
उसकी हँसीं पर वरना क्यों नज्म लिखता यु ही तरुण
सारे अपने गम भुला के सिर्फ मेरे लिए हँसी थी वो |

गाँधी

गाँधी ,
एक शब्द है ,
जिसमे आत्मा भी है |
गांधी ...
एक विचार
भर नहीं है |
एक समस्या बन गया है !
उनके लिए ,
जिन्हों ने ,
सहज ही साध रक्खे है '
सत्ता के सारे सूत्र |
उनकी पीढिया ,
पहन रही है ,
गाँधी की उतरन |
बेशर्म होकर ,
जिन्होंने ,
गरीबो की झोपडियो में ,
झुग्गियों में ,
किलेबंदी
कर रक्खी है |
उस सोच के खिलाफ ,
जिसका नाम ,
गाँधी है |

अकल बड़ी कि भैस बड़ी ?

अकल बड़ी कि भैस बड़ी ?
इसी सोच में अकल पड़ी
भैस खडी पगुराएगी
अकल कि चल ना पाएगी
सींग उठाए भैस खडी
पूंछ उठाए भैंस खडी
गोबर देगी या दूध अड़ी
पड़ी चौराहे अकल सड़ी
भैंस बिक गयी खडी खडी
दूध पीकर जो अकल बड़ी
भैंस से जाकर जुडी कड़ी
कैसे अहसान चुकाएगी
भैंस समझ ना पायेगी
अकल बीन बजाएगी
भैंस खडी मुस्काएगी
जो भैंस पानी में उतर गयी
रह जायेगी अकल खडी
अकल के पीछे भैंस पड़ी
जमीन जाकर अकल गडी
चारा बन उग जायेगी
भैंस उसे चर जायेगी
अकल लग रही हरी हरी
भैंस देखकर डरी डरी
भैंस देखकर अकल झड़ी
भैंस बड़ी कि अकल बड़ी ???

Wednesday, June 16, 2010

आपस की बात Day 1

दिल तो है दिल
दिल तो पागल है
दिल ही तो है
ये दिल ना होता बेचारा
आदि
ना जाने कितने जुमलो से
सताया दिल को
फिर
दिल टूट गया एक दिन
तो रोना लेकर बैठे
दिल तोड़ने वाले
दिल तोड़के जाते हो
टूटे हुवे दिल से
वगैरह वगैरह
अरे भाई
दिल एक है
और कीमती भी
व्यस्त भी
और
तुम्हारे कारण
त्रस्त भी
उसे अपने कारण नहीं
तुम्हारी गलतियों के कारण
करवाना पड़ते है
तीन तीन बाइपास
और
तुम्हारे चक्कर में बेचारा
हो जाता है
नापास
तुम तो झट कह देते हो
यार हार्ट फेल हो गया
अरे कभी
किसी को
ये कहते सुना है
कि हमारा दिल अव्वल आया है
लो मिठाई खालो
नहीं ना
तो हमसे कुछ नुस्खे ले लो
मुफ्त नहीं मिलेंगे
यहाँ ससुरी सबको
मुफ्त की बड़ी चाट लगी है
अभी मुफ्त दे दूंगा
तो कल कौन पूछेगा
तो भाई
कीमत मैं बाद में वसुलुंगा
आखिर में ..
पहले नुस्खे नोट कीजिये
नुस्खा नंबर एक
बन जाइए नेक
ना की घुटने टेक
भाई भीतर के स्वाभिमान को
जिलाए रखिये
और
इसके लिए
एक शौक जरुर पालिए
क्या कहा
शौक नहीं पालते
पालना भी नहीं चाहते
तो
एक कुत्ता पाल लीजिये
क्या कहा
कुत्ते से एलर्जी है
कुत्ता काट लेता है
कुत्ता गन्दगी करता है
लीजिये
अभी नुस्खे देना
शुरू भी नहीं किया
और नखरे शुरू

चलिए नुस्खा नंबर दो
अपना नंबर दो
हां हां
अपना नंबर दीजिये
और मेरा लीजिये
अगर लड़का है
तो लड़की को
आंटी है तो अंकल को
कवि है तो श्रोता को
कवि , कवि को भी दे सकते है
क्या कहा
आपने दिया है
और आप ज्यादा परेशान है
किसको दिया
बीमा वाले को
बैंक वाले को
रिकवरी वाले को भी
अरे बाप रे उनको भी
चलिए छोडिये
आपकी समस्या
ज्यादा गंभीर है
आप बात ही
पूरी नहीं सुनते
कान की दवा आँखों में
आँखों की वहा
जाने क्या क्या करते है

नुस्खा नंबर तीन
हो जाओ तल्लीन
हां
किसमे
नहीं दारु बिलकुल नहीं
सेक्स भी योग्यता अनुसार
लिहाज शर्म और एहतियात के साथ
मैं तो
ध्यान की बात कर रहा हूँ
ध्यान दो बाबा
विषय से मत भटको
अब तुम क्या करने लगे
बाबा रामदेव खोल कर बैठ गए
अरे बाबा वो योग है
मैं ध्यान
ध्यान कि बात कर रहा हु
रुको
इससे पहले कि तुम और किसी
बाबा का चैनल
लगा लो
मैं सबसे आसान
एक दम घरेलु टैप का
नुस्खा बताता हु

दिल लगाओ
जी हां दिल को
काम में लगाओ
वो काम नहीं
अच्छा एक दिन
गलती से
सुबह उठो
जोगिंग सूट पहनो
और सड़क पर
गार्डन में
पार्क में
घूम आओ
तुम्हे दिल लगाने के
कई सामान मिलेंगे
और
मौके भी
तो क्या कहते हो
मिले सुबह
कहा पार्क में या
मैदान में
अजी साहब
सुबह जल्दी जागने
और भागने वालो से
दिल लगाइए
आपका दिल नहीं टूटेगा
और
फेल तो क्या
सप्लिमेंटरी भी नहीं आएगी
पास कराने की
हमारी गारंटी है साहब
अब लगे हाथो
फीस कि बात भी
कर डालते है
तो
जनाब
अब तो मुस्कुरा दो
आहा
ज़रा और , ज़रा और
ये हुई ना बात
तो ये थी आज की बात
क्या कहते हो
होती है
कल फिर मुलाक़ात
लिखना जरुर
कैसी लगी
ये
आपस की बात

Tuesday, June 15, 2010

लो सखी आया झूम के सावन !

लो सखी आया झूम के सावन !

गिरी बूंदे "खन खना खन"
मन के आँगन ,
पसर गया पानी राहो पे
भींगी छत भरी छाजन |
इसी की राह तो तकती थी
आये झूम के सावन|
सखी देख इतरा के
वो आया झूम के सावन ||

लता भी , झाड , झाडी ,
घास ,पत्ते, मन
भिंगो कर हर कली
हर अनछुआ तन |
सिंगार अवनी का बना ,
ज्यों कृपण को धन
सहेजू तो कहा? कैसे?
हर कतरा मधुर कण-कण ||

इतराऊ भी इठलाऊ,
बजा पायल सजा कंगन
लिवाने अबके गौने में
जैसे आये मेरे साजन ||
एक बूंद तो देखो कैसे
होठो पर गिरी बेहया बैरन
बन पिया का प्रेम चुम्बन
जो उडी संग ही ले गई मन ||

मंदिर भी भींगा ,भींगी मस्जिद,
"बिगड़ बन बन" "बिगड़ बन बन" |
मानो गा रही बूंदे भी
"जन - गण - मन" हां "जन - गण - मन"||
जैसे बजते हो नुपुर
"छनक छम छम " "झनन झुन झुन "|
तबले पर थाप हो जैसे
"तिगड़ धिन त़ा " "तिगड़ धुन धुन"||

इतना ही तो माँगा था हरिया ने
हो नत , कर नमन भींगे नयन |
चिड़िया ने माँगा दाना-दुग्गा,
माँगा एक नीड ना माँगा ऊचा भवन ||
तू श्याम हो जा ,श्याम से घनश्याम होजा
ओ रुपहले नीले गगन |
तेरे स्वर में तर बतर हो "तरुण "
भीजता ,
सीजता,
शीतल ,
मगन ||

रहिमन पानी राखिये

रहिमन पानी राखिये
बिन पानी सब सुन
पानी गए ना गुजरे
अप्रेल मई और जून

रहिमन पानी राखिये
जाने कब आये मानसून
पेपर , टीवी रेडियो कहे
कमिंग सून , कमिंग सून

रहिमन पानी राखिये
बिन पानी सब घून
प्यासी जनता पी रही
एक दूजे का खून

रहिमन पानी राखिये
बीत ना जाए जून
बिन नहाए बिन धोये
सब लागत है कार्टून

रहिमन पानी राखिये
खाकर सत्तू नून
धूप महंगाई बढ़ रही
जनता गयी है भून

रहिमन पानी राखिये
पानी रहा सुखाय
नैनो का नीर भी पी गए
देखो सावन कब आय
अब आया के तब आय
अब आय के तब आय
रहिमन जैसी निभ रही
जब तक निभे निभाओ
दुवा करो हे दाता !
अब तो द्वार गाँव भिंगाओ
अब के बदली बन
गगन पर ऐसे जम जाओ
के फिर
हम तुमसे कहे !
बस बाबा अब जाओ !

आशा करता हूँ
मेरी पाती पढ़
तुम जरुर आओगे
ककड़ी भुट्टा लाओगे
और नहीं सताओगे
सबके पिया कहलाओगे
तभी मल्हार सुन पाओगे
तो अंत में
रहीम को सादर नमन
और
चार पंक्तियों से
करता हू बात ख़तम

रहिमन पानी राखिये
सब पानी के मजमून
सब तेरे जिलाए जी रहे
सब तेरे है मगनून!
सब तेरे है मगनून!!
सब तेरे है मगनून !!!

Monday, June 14, 2010

मेरी कविता , तुम्हारी कविता

मेरी कविता , तुम्हारी कविता
कुछ लिख कर
कह सुन कर
जी हल्का हो जाता है
ये भी लगता है
की चलो
किसी काम आये तो सहीं
मेरे शब्द
जिन्हें
या तो
मैं इस्तेमाल नहीं करता
नहीं कर पाता
वो सब
और
बहुत कुछ नया भी
शामिल हो जाता है
कविता में
मैं नहीं लिखता
ये खुद
मुझे
मेरी कलम सहित
कागज़ के पास
और
अब तो लेपटोप
के पास ले जाती है
मेरी उंगलिया
मेरे मन मष्तिष्क
के साथ
तारतम्य बिठाकर
निकालती जाती है
नए धागे
अनुभव के कोकून से
और फिर
मैं किसी
नौसिखिये जुलाहे की तरह
एक रंग बिरंगी
अनघड
बेढंगी सी
मगर
काम चलाऊ
कविता रच देता हूँ
फिर
उसे पढ़ता हूँ
बार बार
लगता है
इसे मैंने नहीं
किसी और ने लिखा है
और तब
नीचे लिखे
मेरे नाम को
पढ़कर
रोमांचित हो जाता हूँ
जब छोटा था ना
तो माँ को दिखाता था
हाँ
मगर पिता को कभी नहीं
उसी तरह
पत्नी से छुपाकर
और उन दोस्तों से भी
जिन्हें चुगली की आदत है
मैं अपने
साहित्यिक जगत के
आप जैसे
मित्रों से बाटने
निकल पड़ता हूँ
कभी डाकिया
कभी इश्तेहार बांटने वाला बनकर
फेरी लगा लगा
लोगो को पकड़ पकड़
अपनी रचना
पढाता , पढ़वाता
जब
बदले में
कोई भी
थोड़ी सी
प्रतिक्रया पा जाता हूँ
तो
मेरे पैर जमीन पर नहीं रहते
बस
उसी उड़ान का
अब मुझे
नशा होने लगा है
तो
एक कविता और
आप सबकी नज़र करता हूँ
और
उम्मीद करता हूँ
की
इस पाती को
इसके मनोभाव को
हर कविता प्रेमी
समझ जाएगा
और
जरुरत पड़ी
तो
मुझे भी समझाएगा !
--

Saturday, June 12, 2010

बूंद से सागर

सब प्रश्नों से पहले
समाधान बन
अवतरित हो दाता
मुझे यूं
मुक्ति का वरदान बन
मिले हो दाता
जान पहचान
तो केवल बहाना है
तुमसे ही
तुममे ही
खो कर
मिल जाना है

सागर से ज्यो
बादल बन
उडी थी बूंदे
फिर सरिता संग
तुममे आ मिलेगी
जीवन और जलचक्र
का रिश्ता
है पुराना
मगर
कितना है कठिन
इसे
समझ पाना |

फिर जल होकर
समझ आता है
कि
जीवन इकसार है
तुम भी
मै भी
वो भी
सब
वही अवतार है
मगर
बूंद बने हम
अपने
संशय
संकोच में
सरिता तक नहीं जाते
है पछताते
पूछते है
कि सागर क्यों नहीं बन पाते ?

Monday, June 7, 2010

(on Bhopal Gas Tragedy) भारत का हिरोशिमा

हमें जरुरत नहीं है,
किसी
पड़ोसी ताकत की
जो
हमें बर्बाद करने के लिए
खुद बर्बाद हो जाए
हमारे लिए तो
हमारे चुने हुए
प्रतिनिधि ही
किसी
परमाणु बम से
कम नहीं है
ये
किसी एंडरसन को
भोपाल तो दे सकते है
पर
भोपाल को
एंडरसन देना
इनकी औकात नहीं है
वैसे
औकात से पहले
इनकी नियत पे
शक होता है
और
नियत तक तो बात
तब पहुँचे जब
किसी के
इंसान होने की
भी
थोड़ी संभावना हो
भोपाल सबक है
विकास के पीछे
अंधी दौड़ में
शामिल
तथाकथित
विकासशील देशों के लिए
जो
अमेरिका
और
जापान
से
होड़ में
ऐसे कितने
हिरोशिमा
और
नागासाकी
लिए
बैठे है
भोपाल में
गैस अब भी
रिस रही है
तब इसमे
इंसान मरे थे
अब
इंसानियत
मर रही है !

Friday, June 4, 2010

हे राजनीति !

हे राजनीति !
तुम फिर चर्चा में हो
वैसे हर बार
तुम ही होती हो
हर चर्चा का कारण
मगर
इस बार
तुम
सोद्देश्य चर्चा में हो
उठ नहीं सकती
भाग नहीं सकती
जनता , नेता , अधिकारी
गुंडे , छात्र , व्यवसायी
गृहणी , प्रेयसी ,
माँ - पिता
दादा -पोता
अपाहिज , अछूत
अगड़ा पिछड़ा
.....
सब
यहाँ तक की
सभी
छोटे बड़े
भिखारी भी
चश्मों
और बगैर चश्मों के
देखेंगे तुम्हें
तथष्ठ भाव से
पहली बार
एकमत्त होकर
उस भाषा में
जो
अनचाहे
अनजाने
राष्ट्र भाषा
बन गयी है
"सिनेमा "

अब कोई मुद्दा
तुम तक आकर
विवाद
नहीं बन पायेगा
इस बार
तुम स्वयं
कटघरे में हो
ये
कच्चे सच्चे न्यायाधीश
अपनी
काली सफ़ेद कमाई से
काला सफ़ेद टिकट लेकर
स्वत: प्रतिबद्ध हो जायेंगे
भले
उनमे
राष्ट्रगान पर खड़े होने का
शऊर ना हो

तुमने जो
व्यस्त कर रक्खा था
उन्हें
मनघडंत
इतिहास ,
विवादास्पद न्याय
और
हास्यास्पद व्यवस्था
के
दुरूह ताने बाने में
अब वे
कुछ क्षण
आजाद होकर
अँधेरे में
उजाले की
किरण ढूंढेंगे

वहा परदे पर
नायिका नहीं
तुम्हारे कपडे उतरेंगे
सीटियों
गालियों
और
भड़ास के बीच

शायद
कथ्य ना सही
विषय ही
याद रह जाए
उन्हें
ताकि वो
तुम्हारा
दामन
फिर साफ़ कर सके
उस एक दिन
इस विषय को
याद कर
जिस दिन
तुम्हारी ही व्यवस्था
प्रचार पर
विराम लगाती है
चुनाव के
ठीक
एक दिन पहले

"राजनीति "
तुम्हारा स्वागत है
खुले मन से
के
तुमने ही
बदला है
जो पुराना था
अब
तुम्हे बदलना है
नया होना है
साफ़ होना है
काले धन की गटर
और
उसमे पनपे मच्छरों से
आजाद होना है
और
हमारी आजादी
वो तो अभी बाकी है
मेरे दोस्त ...
आजादी
अभी
बाकी है मेरे दोस्त !

Thursday, June 3, 2010

बादल कब बरसोगे ?

बादल कब बरसोगे ?
अभी !
या
बुवाई के बाद !!
देखो
तुम
वैसा मत करना
जैसा सब करते है
सामने से गुजरते है
मगर मिलते नहीं
पिछले सावन
ले गए थे
सुख चैन सारा
अब तो लौटा दो
कितना ब्याज
चढ़ आया है
लाला भी
अब
खेतों को
अपना समझने लगा है
उसकी भूखी नजरे
मांस नोचती है
बेटियों के
उघडे बदन से
तुम इस बार
कपड़ा बन बरस जाओ
रोटी बन बरस जाओ
तो चिंता छूटे
मगर तुम भी
बही खातों में
दर्ज हो
बढ़ता हुवा
कर्ज हो
सबके कर्मो का
हिसाब करते हो
तब
थोड़ा बरसते हो
तो
इस बार
उधार बन बरसों
खेती में खटते
पिया का
प्यार बन बरसों
ओ बादल
तुम
बहार बन बरसों
हमारी सरकार बन बरसों
जो
हरे पेड़ काटती है
हरे नोट छापती है
दारु कम्बल बाटती है
हां
तुम चुनाव बन बरसों

Wednesday, June 2, 2010

छोटी छोटी बातें

समय पर न्याय
उचित मूल्य पर सामान
करों से राहत
शिकायत पर सुनवाई
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं

रिश्तो में सुविधा
सुविधा का रिश्ता
खाने खिलाने का शिष्टाचार
टूटे वादे
अच्छी यादें
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं

आचरण की पवित्रता
आँखों में पानी
धर्म से सरोकार
कर्म में निष्ठा
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं

सहजता
सुलभता
सब्र
अनुभव
आग्रह
सराहना
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं

मगर
इन्ही छोटी मोटी बातों ने
जीवन को
मीठा बनाया
नमकीन भी
अब
सब खारा खारा लगता है
जीवन भंडारा लगता है

जहां
भीख को
प्रसाद कहकर
मन हल्का करते है
देते हुवे हाथ
लेते हुवे हाथ

खैर
सब छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं ...
!?!