लो सखी आया झूम के सावन !
गिरी बूंदे "खन खना खन"
मन के आँगन ,
पसर गया पानी राहो पे
भींगी छत भरी छाजन |
इसी की राह तो तकती थी
आये झूम के सावन|
सखी देख इतरा के
वो आया झूम के सावन ||
लता भी , झाड , झाडी ,
घास ,पत्ते, मन
भिंगो कर हर कली
हर अनछुआ तन |
सिंगार अवनी का बना ,
ज्यों कृपण को धन
सहेजू तो कहा? कैसे?
हर कतरा मधुर कण-कण ||
इतराऊ भी इठलाऊ,
बजा पायल सजा कंगन
लिवाने अबके गौने में
जैसे आये मेरे साजन ||
एक बूंद तो देखो कैसे
होठो पर गिरी बेहया बैरन
बन पिया का प्रेम चुम्बन
जो उडी संग ही ले गई मन ||
मंदिर भी भींगा ,भींगी मस्जिद,
"बिगड़ बन बन" "बिगड़ बन बन" |
मानो गा रही बूंदे भी
"जन - गण - मन" हां "जन - गण - मन"||
जैसे बजते हो नुपुर
"छनक छम छम " "झनन झुन झुन "|
तबले पर थाप हो जैसे
"तिगड़ धिन त़ा " "तिगड़ धुन धुन"||
इतना ही तो माँगा था हरिया ने
हो नत , कर नमन भींगे नयन |
चिड़िया ने माँगा दाना-दुग्गा,
माँगा एक नीड ना माँगा ऊचा भवन ||
तू श्याम हो जा ,श्याम से घनश्याम होजा
ओ रुपहले नीले गगन |
तेरे स्वर में तर बतर हो "तरुण "
भीजता ,
सीजता,
शीतल ,
मगन ||