कोई साथ चले ना चले
मुझे भीड़ से क्या लेना |
मेरी अपनी एक डगर है
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
भीड़ मिटा देती स्व को |
भीड़ बड़ा देती भव को |
मै लिए सहज समभाव |
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
भीड़ फिरा देती है सोच |
जगा कर उन्मादित जोश |
रुग्न ज्वर सी वेदनामय ,
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
कसमसाता विवेक मुट्ठियों में
लहराता ज्यों सागर पर फेन |
जो अबूझ पहेली , हो स्वयं प्रश्न
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
मेरी अपनी एक डगर है
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
उत्तमालेख:
ReplyDeleteशोभना कविता
बहुत बढ़िया.
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