"भागवत गीता " के नित रसपान के बाद , अनायास ही अन्य संदर्भो में जब दुबारा झांकने का अवसर मिला तो पाया कि उन संदर्भो में झांकने कि द्रष्टि परिपक्वता की अगली पायदान पर थी. बहुत सोचा तो पाया कि जिस प्रकार जीवन कि घटनाओं और संस्मरणों से हम सीखते है ,वह हमारे परिपक्व होने की राह को दुष्कर और दीर्घ बना देती है, और वही जब "भागवत गीता " के आश्रय में रहते, हम मात्र किसी और पर घटित / कल्पित संस्मरण को सुनने मात्र से ही उसका सारभूत अनुभव सिद्ध कर जाते है, और ये सब और अनेक अन्य विभूतियों का संचय व पल्लवन / पुष्पन इतनी सहजता से जीवन वृत्त में घटने लगता है कि लगता है , महात्मा अर्जुन कि ही तरह हमें भी एक सारथी मिल गया है जो गाता जा रहा है "योग्क्षेम्यम्वाहाम्य्हम "|
जीवन कि कठिनाइया और क्लिष्ठातम मनोदशाओं और असाध्य्प्रतिता व्याधि / दुर्योग के निवारण कि इस सुगम नौका जिसके खेवनहार स्वयं श्रष्टा है, उस नौका में विहार करते हम कष्ट में हो यह नितांत असंभव है | बस इसी भावना को संप्रेषित करने का दुस्साहस और अकिंचन प्रयास किया है , आशा करता हू कि "भागवत गीता" के पठान / पाठन से अधिक से अधिक बंधू लाभान्वित होते ही रहेंगे |
"जय श्री कृष्ण "