समर शेष बहुत जीवन का
अभी कहा जीता हूँ मैं ,
बाहर से बैचैन बहुत
भीतर तक रीता हूँ मैं !
मौन मंथन रत एकाकी ,
विकल हला पीता हूँ मैं !
एक स्वांस में मरा अभी ,
एक स्वांस जीता हूँ मैं !
संग्राम बीच ही रची गयी ,
विस्मृत, विगत, रत गीता हूँ मैं !
मर्यादा की बलिवेदी पर, चिर
अर्पित, मानस धर्मा सीता हूँ मैं !
लोभ बहुत है, मोह बहुत
करने कहने को अरमान बहुत !
क्या कहूँ ? समय बीता मुझ पर ,
या विराट समय पर बीता हूँ मैं ?
सहज बनावट, पर नहीं सरल ,
अगढ़, निपट, ढिठा हूँ मैं !
पकड़ नहीं पाया खुद को ,
स्व से चिपटा चीठा हूँ मैं !
क्या करू स्वयं को अनुदित ,
कटु अमिय, करील सा मीठा हूँ मैं !
बाहर से बैचैन बहुत ,
भीतर तक रीता हूँ मैं !
बेहतरीन प्रस्तुति
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Dhanywad Sanjay Ji !
Deletebahut hi behtreen rachna hai sir ji
ReplyDeleteDhanywad Sanjay Ji !
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ReplyDeleteआत्म निरिक्षण करती बहुत सुन्दर रचना !
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Bahut bahut abhar Adarniy !
DeleteBahut Bahut Abhar Adaraniy !
ReplyDeleteह्रदय से बुनी हुई सुंदर कविता .
ReplyDeleteबहुत आभार आदरणीय क्षितिज जी !
Deleteह्रदय से बुनी हुई सुंदर कविता .
ReplyDeleteबहुत आभार आदरणीय क्षितिज जी !
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