क्रमश: भाग २ से आगे
ना दिल्ली ही नयी थी
ना जनदेव दिल्ली में नए थे
पर पतिता राजनीति के
पैतरे हर पग नए थे
बहुत पहले
छल से
संविधान ले लिया था
दिल्ली ने ठग कर
वो दिल्ली
अब देश को
ठेंगा दिखाती थी
लावारिस क्रांतिकारियों की
लाशें बेच खाती थी
वही कुछ
मर चुके मानवी शरीरों में
भुस भर
बैठा दिया था
राज भवनों में
जो अन्यथा
मिटा दिए जाने थे
गुलामी के प्रतिको से
वहीँ
जंतर मंतर पर
और गांधी की समाधि पर
वैसे तो गांधी ज़िंदा था
मगर रोज मार दिया जाता था
किसी नोट पर
छाप दिया जाता था
बैठ गए जन देव
चौराहे पर
और जनता
जो चमत्कारों से जगती थी
उमड़ आई हजारों में
माध्यम भी थे खड़े
इन कतारों में
जन देव प्रसन्न थे
आत्ममुग्ध
भूल बैठे
दिल्ली तो ठगों की
आदिम नगरी है
अमृत छलकाती जिव्हा से
विष की गगरी है
दिया गया
अश्वासनी प्याला
मुहरबंद राजपत्रों पर
जनदेव चौके तो थे
पर जानते थे
कोई छल अवश्य ही
है नहीं तो होगा
मगर वो जानते थे
उसका परिणाम क्या होगा
बली जब छल से
जीत जाता है
समझो
अपने विनाश का
बीज बोता है
आगे फिर
वही हुवा
जो
हर युग में
हर महाभारत में
हुवा है सदा ही
होता है
क्योंकि
भक्तों !
हर दिल्ली के बगल में
अवश्य ही
एक कुरुक्षेत्र होता है |
सो जनदेव लगे थे सत्ता के लोभ समुद्र को मनाने में पर लगता नहीं कि सेतुबंध के सिवा कोई और राह रही थी , मैं आगे कैसे कहू समय ने भी मुझसे इतनी ही कथा जो कही थी ... तो विश्वास रखे भक्तों , बोलिए जय जय जनदेव !