सोये थे जनदेव
भोगनिन्द्रा में
तन्मय हो
तन्मय हो
लिप्त थे
नित्य क्रीडा में
तभी
भ्रष्टासुर आ धमाका
ठीक सिर पर
प्रभु जागे नहीं
उनींदे ही
पूछ बैठे
कौन वत्स भ्रष्टासुर ...
तुम तो हो गये हो
दुराचारी
और
दुर्घर्ष भी
समाचार सब
नारद जी
फैला रहे है
तमाम माध्यमो पर
नित ही तुम
तोड़ते हो
स्वयं ही के कीर्तिमान
याद नहीं पड़ता
कैसे !
कब !!
उद्भव हूवा
सो कथा तुम ही कहो
मेरी ओर से नि:शंक रहो ...
प्रभो , बोला भ्रष्टासुर
परिचित
विनीत स्वर में
आपकी ही
उपेक्षाओं से जन्मा हूँ
अवसरवादिता
और
सुविधावृत्ति ने
पालन किया
मां लक्ष्मी की
रही कृपा बरस
आपसे क्या छिपा भगवन
बढ़ रहा हूँ
कलिकाल की
अनुकूलता में
पल पल हर क्षण
क्षुधा से
आकुल हो
इस द्वार आया हूँ
आप ही शेष रहे
शेष सबको तो खा आया हूँ !
अब कुछ
तंद्रा में विध्न पडा
तो विचलित हो
बोले जनदेव
मुर्ख
जानता नहीं
मेरी ताकत
मेरी सहमति
और मौन से ही
रहते है
भ्रष्ट सारे सत्तासीन
दीर्घायु अभामंडित सदा
मेरे अन्दोलनास्त्र की
एक फूंक से
ध्वस्त कर सकता हूँ
तुझ जैसे सहस्रों को
तेरे लिए तो
मेरा शांतिपूर्ण प्रदर्शन ही
पर्याप्त है
अट्हास से भ्रष्टासुर की
दहल उठा था नभमंडल तब
जनदेव, भले आप पूज्य हो
और समर्थ भी
भेद ना सकेंगे
मेरे संगठित
बेशर्मपुर गढ़ को
और
मेरे लिए तो
आप ही ने दिया था
संविधान का कवच
भूल गए प्रभु !!!
ओह , बड़ी भूल हुई
जनदेव अब भी
मूर्तिवत सोच रहे है
क्या पता
समाधि में है
या भ्रष्टासुर ने
बना दिया
उन्हें भी जड़ ...
कथा अभी शेष है , कृपया प्रतीक्षा करे , जय जय जनदेव !
आगे ...