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Monday, March 22, 2010

इस तरह या उस तरह

सोने पे सुहागा रख दू ..
सोना चाहिए मगर
तो !!
तो कैसे रख दू?
कहा से रख दू??
अब..
कह तो दिया ,
रख दू ..
वो भी पत्नी से !
तो..
रखना तो पडेगा ना !
बुरे वक़्त के
घटिया दौर में
खटना तो पडेगा ना !
सो खट रहा हु
बढ़ने की चाह में
रोज..
रोज थोड़ा..
थोड़ा थोड़ा
घट रहा हु
और
और जिंदगी...
जिंदगी..जिंदगी नहीं
जोड़ , जमा , गुणा भाग लगती है
किसी गरीब का फूटा भाग लगती है
रोज ..
रोज की शिकायतें
शिकायतों की पुरानी लिस्ट
और ..
और उन्हें सम्हाल कर रखता मैं..
मैं !
किसी पुराने दफ्तर के
घिसे हुवे बाबू सा ,
खीसे निपोरता ,
बगले झांकता ,
पीएफ और ग्रेज्युटी
के सहारे
बुढापा सवारने ,
घर बनवाने के
मनसूबे लेकर
तमाम एहतियात
और बंदोबस्त से
थोड़ी..
थोड़ी रिश्वत ..
ले ही लेता हु ,
जिसमे
बड़े बाबू का भी तो
बड़ा हिस्सा होता है
वो..
वो जो होता है
सो होता है
मगर..
मगर ,ये तो आप भी जानते है !
उतने में आज क्या होता है ..
बेटी के गहने ,
बेटे का फेशन
क्या कहने ?
काम..
काम जनाब ..
कोई नहीं रुकता
सबकी अपनी जिद है
कोई नहीं झुकता |
एक मैं ही हूँ
जो
आज भी
स्वदेशी की आड़ लेकर
दो जोड़ी खद्दर
और
एक बण्डल बीडी पे
गुजारा कर लेता हूँ
कल्लू की कच्ची चढाकर
उसी से उतारा कर लेता हूँ
बच्चों का भविष्य..
अब
उनकी आँखों में
साफ.. दिखता है
अनुकम्पा नियुक्ति ही
..अंतिम उपाय दिखता हैं ..
मगर !
मगर, उसके लिए भी
मुझे ही
फिर...
फिर , मरना पडेगा
"स्वाभाविक मौत"
कागज़ ही पर सही
हाँ ..
ये काम करना है
जल्दी ही करना है
करना ही पडेगा ..
तो ..
तो मरने का
एक अच्छा.. सा बहाना
ढूंढ़ रहा हूँ
खोया बचपन
बेसुध जवानी
अपना-बेगाना
गुजरा ज़माना
ढूंढ़ रहा हूँ
सब साथी बुढा रहे है
खखार
खिसिया
सठिया रहे हैं|
उनसे
सहारे दिलासे की आस
मजाक लगती है
उनसे
अब
अपनी ही नहीं धुलती
जैसे
जब
पुरानी संदूक नहीं खुलती
तो
क्या करते है?
तोड़ देते है
कुण्डी ताला
बेच देते हैं
पुराने गहने
गाँव के सुनार को
और
टूटी संदूक
कबाड़ी को
उस पैसे से
बन जाती है
एक दीवार
दोनों भाइयों के घरों के बीच
वही
उसी दीवार की
किसी दरार में
उग आता हूँ मैं
पीपल की कोंपल बन
इस
आस में
के
तिड्केगी , टूटेगी
वो दीवार
जो
बरसों की नमी
मौसम और समय की मार से
पहले ही
दरकने लगी हैं
नईं पीढ़ी का कोई तरुण
तोड़ ही देगा इसे
जब
वो इसे लांघकर
इस तरफ आयेगा
अपनी किसी बहन को बचाने
या
मुझपे अटकी
पतंग उतारने ही सही..
क्या फर्क पड़ता है
मुझे तो
बस
मुक्त होना है
इस तरह्
या
उस तरह
क्या फर्क पड़ता है |