पहला ख़त
मेरे गाव की मिटटी को
जिससे ही पाया
प्यार दुलार
जहा अंकित हुवे
स्वप्न
आज भी
अमिट है
हे मातृभूमि !
सदा वंदनीया !
तुझे प्रणाम !
भूली नहीं होगी
तू मुझे
मैं भले भूल जाऊं
स्वार्थी हो परवश |
जैसे कण कण धूल का
सहेजा है
सब अच्छा बुरा
तूने
आदि से अब तक
मुझे भी विश्वास है
तेरे आँचल में
मेरी जगह
आज भी खाली है |
दूसरा ख़त
सभी बुजुर्गो को
माता पिता
दादियो नानियों
और असंख्य रिश्तों को
जिन्होंने
मुझे मेरा नाम दिया
आज भी
पुकारता है कोई
जब उस नाम से
लगता है
तुम्ही ने पुकारा है
जब कोई हाथ
छू जाता है
शीश को
लगता है
तुम्ही ने दुलारा है
तुम्हारा प्यार
मैं अब सबमे बाटता हूँ
अकेले में
भीतर ही
ख़त सब तुम्हारे
नित वाचता हूँ
आशीष दो
बनू सबका दुलारा
और मिलु जब
तुमसे कही ... कभी
तो नाज हो तुमको
तुम्हारा
नालायक , नटखट ... राजदुलारा
तीसरा ख़त
अपने बाल सखा को
जो छूट कर भी
नहीं छूटे
ना जाने कितनी बार
माने फिर रूठे
मना लेने का भरोसा
अब भी है मुझको
बस रूठने का हक़
बनाए रखना
यू ही
स्मृतियों में आना रोज
रौनक जीवन में
सवाप्नो में ही
सदा लगाए रखना |
चौथा ख़त
गुरुजनों को
सादर
क्या कहूँ उनसे
अभी
कर्मरत हूँ
लिख रहा हूँ
भविष्य
कठिन भी सरल भी
सब आपका दिया है
संबल हो
छाया हो
सूरज हो
दर्पण हो
क्या नहीं हो
मैं तो केवल
कृतज्ञता ही
अर्पण कर सका था
कर सकूंगा
सो करता हूँ |
पांचवा और
अंतिम ख़त
स्वप्नों के नाम
चहरे भी
नाम भी तमाम
स्वप्नवत ही लगते है
जीवन भी
जोकुछ भी है
पाया खोया
जो पाना है
मेल करता हूँ
तो पाता हूँ
स्वप्न सच ही होते है
जैसे स्वपन होते है
वैसे यकीं भी हो
तो स्वप्न ही साकार होते है
जैसे सब मेरे . मैं भी सबका
सिया राम मय सब जग जानी ,
करहु प्रणाम जोरी जुग पानी ||
जय हो ! शुभ हो ! ... लाभ भी हो
अवश्य ही
हां मगर शुभ हो !