मैंने बचपन से
सुभाष और भगत को
घुट्टी में पिया है
मुझे पता है
तिलक ने
गांधी ने
इस देश के लिए
क्या किया है
आज
उस भोगे हुवे
अतीत पर
रचा गया
यथार्थ भारी है
मुझे नहीं पता
सचिन के
अलंकरण के
क्या निहितार्थ है
मेरे लिए तो
ये भी
एक और
राजनीतिक कब्ज
और
प्रचार की
आम सी
बीमारी है
वो
जो दिल्ली में
पच्छिम की तरफ
मुह कर के सोते है
उन्हें
सुबह
अमिताभ
और
सचिन से ही
जुलाब होते है
जिनकी तिजोरियों में
बंद है
जय जवान
जय किसान
का नारा
जिन्होंने
सच
और
कर्तव्यों से
कर लिया किनारा
वो
सरहदों पर
संगीनों से
गुलाब बोते है
जिनकी सुर्ख
पंखुरियों पर
विधवाओं के आंसू है
वो
शहीदों के कफ़न
रोते है
रोज
जिनके कारण
लाखों
जवां स्वप्न
फैलती चारागाह में
ज़िंदा ही
दफ़न होते है
ऐसे
सरफिरों की
नाकारा
और
खोखले
मानस की
इबारत है दिल्ली
क्या रंज
गर उडाता है
प्रबुद्ध विश्व
गाहे बगाहे
भारत की खिल्ली |
किसी ना किसी
हवाई अड्डे पर
आज नहीं कल
नंगे हो जाएंगे
ये भी शेखचिल्ली |
खैर
मैं तो
उबल रहे अंतस पर
अपनी
प्रज्ञा की आंच से
जागरण की
खिचड़ी पकाता हू
देखता हू
आपसे प्रतिक्रया में
कितनी
मुंग
कितने
चावल
पाता हू |
सभी सह्रदय को
गणतंत्र दिवस पर
बधाई हो बधाई
क्या हुवा
जो आज
वो
दावत उड़ा रहे है
कल
तुम्हारी भी
बारी तो आएगी
तब बात करेंगे
सच
और
साहस की
मुझे तो आदत है
बक बक की
यू ही
नाहक की |
आपका विनीत
तरुण कुमार ठाकुर
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