बचपन अपना ,
उमंगो वाला !
पतंगों वाला !
जिस पर
उग आती थी ,
उग आती थी ,
लोहड़ी / सक्रांत पर ,
ढेरो पतंगे ,
सूत , मांझे समेत ! ... फिर
सूत , मांझे समेत ! ... फिर
किसी 'सांताक्लॉज़' सा
बांटता रहता था वो ,
उत्तरायण भर
रंग बिरंगी पतंगे
रंग बिरंगी पतंगे
भेद नहीं किया
उस पेड़ ने कभी
काले , गोरे का ,
बिना ऊंच नीच
छुआछूत से पर ,
बांटता गया
पहली से अंतिम तक
पहली से अंतिम तक
पतंग और धागा ...
बांधता गया बचपन
समेटता रहा यादें ...
सर पर उसने ,
अरमानो का
विस्तृत , नीला
आसमान भी
उठा रक्खा था !
क्या पता
रातों को टूटकर
तमाम तारे ही
तमाम तारे ही
अटक जाते थे
उसकी सांखो में ...
सुबह पतंग बन
उतर जाते थे
नन्हे हाथों में
फिर नन्हे जादूगर
लग जाते थे
जुगत में
कि फिर एक बार
उड़ा कर
पहुंचा ही देंगे जैसे
उन तारों को
उसी अरमान में !
टूट भी
कट भी जाती थी
कुछ पतंगे
कुछ पतंगे
खींचतान में
तो इत्मीनान था
तारा बन , भोर तक
अटकी रहेंगी ... ऊपर ही
या पेड़ पर कि ,
आसमान में !
या पेड़ पर कि ,
आसमान में !