आकाश छूती
लहराती
इठलाती
शिखर पर
आच्छादित है
मुखर है
आह्लादित भी
मानो
वही चरम हो
समस्त
उत्कर्ष का
वैभव का
संकल्प का
नीचे
पड़ी है
पुरानी पताकाएं
धूसरित
चीथड़ों में
बदलती
सिमटती
संकुचाई सी
अभी
कोई भाई
नमन करता
नई पताका को
पाँव धर
गुजर गया था
दिन में
कई बार
घिसटते
फटते
चिंदी चिंदी हो
बह जाएगा
उड़ जाएगा
उसका
हर रेशा
कोई
जा पहुचेगा
नई पताका के
बहुत निकट भी
तब
शायद
उसे भी
इसकी मुक्ति पर
रश्क तो होगा |