मैं सिर्फ सच कहूंगा ...
सच के सिवा कुछ नहीं |
इतनी शपथ लेने के बाद
मैंने देखा
कोई नहीं चाहता था
सच सुनना
उस गहरी खामोशी
का मतलब
मैं समझ भी रहा था
और
सोच रहा था
तोड़
इस शपथ का
जो
मैंने
अभी अभी ली थी
पवित्र पुस्तक पर
हाथ रख कर
मैंने बहुत सोचा
पर
याद नहीं
मैंने
उस पवित्र पुस्तक को
कभी पढ़ा भी था
हां उसकी महिमा
मेरे जहन में भरी थी
जो
मुझे
रोक रही थी
शपथ तोड़ने से
मैंने फिर भी सोचा
कोई तो राह होगी
कि
कसम भी रह जाएँ
और
पुस्तक का मान भी
मैंने ये भी सोचा
क्या
पहले कभी
किसी ने भी
तोड़ी ना होगी शपथ
मुझसे पहले ?
फिर
ये किताब
वो कुर्सी
और
वो
न्यायाधीश
जीवित कैसे रहें??
क्या
भ्रष्ट व्यवस्था
श्राप
और
ईश्वरीय अवमानाओं से
कहीं ऊपर है? ??
आखिर
कब तक
शपथ का उत्तरदायित्व
मुझ अकेले को
ढोना होगा?
कौन करेगा
इनका फैसला ??
जो
साक्षी है
अनगिनत झूठी शपथों के
जो
अन्याय को
आश्रय देते हैं
उस किताब में
जिसे
संविधान कहते है||
जो
गीता
कुरआन
और बाईबल का
रोज अपमान करवाती है
हमारे अपने ही हाथों
और
हम मजबूर है
क्योंकि
धर्मनिरपेक्ष
और
इंडियन होने की
इतनी कीमत तो
चुकानी होगी ना ||