सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।
श्री हनुमान जी जब माँ जानकी को लंका में ढूंढते हुवे
विभीषण जी से मिले तो स्वाभाविक कुशल प्रश्न किया
"हे राम भक्त ,
इस विषम लंका नगरी में किस प्रकार निर्वाह करते हो ?"
तब भक्त-शिरोमणि विभीषण महाराज द्रवित हो बोले
" हम ऐसे रहते है पवनसुत जैसे बत्तीस दाँतों के बीच जीभ रहती है !"
हनुमान जी ने कहा : "बहुत सुन्दर विभीषण , तुम्हारे जैसी रहनी किसी बड़भागी को मिलती है "
विभीषण आश्चर्य से कहने लगे : " प्रभु 32 दाँतो के बीच जीभ रहे वह सुन्दर कैसे ?"
हनुमान जी बोले : " विभीषण जगत में पहले जीभ आई की दाँत ? "
विभीषण : "जीभ प्रभु " ...
हनुमान जी : " पहले जीभ गिरती है या दाँत ? "
विभीषण : "दाँत ही गिरते है प्रभु "...
"तो बस विभीषण ,
एक मास में श्री राम आकर इन राक्षस रूपी दाँतो को गिरा देंगे
और तुम जीभ जैसे कायम जीवी हो जाओगे "
जब हनुमान जी ने जब ये अर्थ बताया
तो विभीषण को वही स्थिति जो पहले दू:खद लग रही थी
वही अब अनुकूल लगने लगी ।
|| जीवन में जब सद्गुरु आता है तो वह दृष्टि बदल देता है ||
जीभ और दाँत की तरह ही ,
समाज में दुर्जन बहुत है और सज्जन बहुत थोड़े
और सज्जनो को दुर्जनो के बीच ही रहना होता है ।
भोजन को काटने , चबाने , तोड़ने का काम दांत करते है ,
मगर स्वाद उनको नहीं मिलता स्वाद जीभ ले जाती है ,
उसी प्रकार दुर्जन समाज को तोड़ने का काम करते है
इसलिए स्वयं भी सुखी नहीं रहते और अंत में नष्ट हो जाते है
और सज्जन जीभ की तरह
समन्वय और समाज को जोड़ने का काम करते है
इसलिए समाज के साथ अंतत: स्वयं भी सुख प्राप्त करते है ।
|| बोलिए श्री सीताराम दुलारे हनुमान लला जी प्रिय हो ! ||
श्री सद्गुरु देव प्रिय हो !
(पूज्य बापू की कथा से उद्घृत )