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Monday, February 28, 2011

अजब बन्दर बाट है साहब [:)]

बजट आते रहेंगे
जैसे
आजादी के बाद
दसियों बार
आये
और
बीत गए

बीत गए
सो
बीत गए
अब उनका
कोई भान नहीं
ये वाला
नया है

नया है
मगर
पुराना है

नया है
क्योंकि अभी
आया है
संशोधन
अभी
बाकी है ...मेरे दोस्त

पुराना है
क्योंकि
चौकाता नहीं है
फुसलाता है
उम्मीद
जगाता है
सरकार
बचाता है
ढोल
बजाता है
शोर
मचाता है

मगर
इसमे
बहुत से
मगर है
किन्तु है
परन्तु भी है
जिन्हें
जाहिर होने को
पूरा सत्र
पडा है
जल्दी क्या है
अभी तो
जनता खुश है
सरकार
उनींदी है
शेयर
उछल रहे है
प्रचार / समाचार तंत्र
मचल रहे है

कुल जमा
चार
सब खुश है
यार
तो तुम क्यों ...
ख्वामखा
रुसवा होते हो
क्यों नहीं
बहती गंगा में
हाथ धोते हो

मगर नहीं साहब
बुद्धिजीवी होना भी
कम बीमारी नहीं है
जिसका कोई
ईलाज नहीं है

बड़े मियाँ सोच रहे है
मंसूबों के
तम्बू तान रहे है
स्विस अकाउंट को
अपना मान रहे है
उन्हें लगता है
लौटे हुवे रुपयों में
बिटिया ब्याह जायेगी
राधे को लगता है
उसके खूंटे भी
जरसी बंध जायेगी

बाबा
के साथ
सब
टकटकी लगा
ताक रहे है
सरकारी गल्ले में
झाँक रहे है
बाहर से पैसा
अब आया
कि
तब आया
मगर
फिर मगर
क्या करे
दिल्ली के
तरणताल में
मगरों का
मोहल्ला है
गरीब के चौके में तो
बस
बर्तनों का हल्ला है |