भूख और बीमारी
बलात्कार और हत्याएं
घुमाते है
वक्त का पहियाँ
जो
रक्त और मांस से
बोझिल हो चला है ...
इन सब से बेखबर
दो वक्त डकारता
कोई
बदलता है चैनल
पलटता है पन्ने
करता है चुगली
रहता है मौन
मौत नहीं बख्शती
ना भीष्म को
ना ही विदुर को
तुम बन भी जाओ
अश्वत्थामा या कृपाचार्य
आ न सकोगे फिर
सम्मुख
किसी द्रोपदी के
भले उसे गुजरे
बीत जाएँ
सदियाँ , सहस्राब्दियाँ भी |
लो फिर किसी
राम ने
तोड़ा है शिव धनु
या फिर
ये लाखों गांडीवों की
दुर्भेद्य ध्वनि है
लगता है
धरती फटने को है
श्वानासन धसने को है |
तुम मत उठों
बाहर बहुत ठिठुरन है
तुम
मजबूरियों की
चादर ओढ़े
इन्तेजार करो
अभी क्रांतिवीरों के लहू सींचा
स्वाभिमान का लाल सूरज
उगेगा पूरब से
हो सके तो
उसे जल चढ़ाकर
प्रणाम भर कर लेना
तुम ही कृतार्थ होवोगे
वो तो रोज दमकेगा
अभी वो
हमारे दिलों में
आजादी की तड़प बन
धड़कता है
अभी वो
हमारी कोख में
कल की आस बन
सुलगता है |
चलते चलते
लिख दू ये भी
कि हाँ
मैं भी
तुम्हारी तरह
बहुत बैचैन हूँ
पर तुम मौन हो रहना
सदा की तरह|
ये कोई रात है
सोये तो कैसे
बाहर हर तरफ
कोई चिल्लाता है
"जागते रहो "|
कोई इन्हें चुप करो
हमें आदत है
झींगुरों की
उल्लुओं की
चमगादड़ों की |
कोई
कब्र खोदता है
अँधेरे की
गाड़ता है
समय की निशानी
एक शिलालेख
जिस पर
बना है कोई चिन्ह
और नीचे लिखा है
"मुझे वोट दो ... "
सौ बरसनुमा
कई सदियों के बाद
खुदती है कब्रें
निकलते है पत्थर
जो
शर्म से
पिघलने लगे है
नजर भर पड़ने से
दरकने लगे है |
करोडो जिस्म जब
राख हो चुके हों
ख़ाक हो चुके हों
तब कौन ईतिहास बचता है
कोई बहुत ऊपर
लगातार
एक दुनिया मिटा कर
नए अध्याय रचता है
समय भी
संकल्पना मात्र है
जिस अबूझ अतल पर
जहां मिलती है
शीतलता जल कर
वहाँ प्रपंच क्या करेगा ?
समय से परे
वो सूत्रधार
क्या कविता रचेगा ,
हँसेगा या
अट्टहास करेगा ?
कवि ही पड़ते है
ऐसे पचड़ो में
छोडो ये बत्गुईया
तुमने सुना
दिल्ली ने
कल फिर दाम बढाए है
ज्योतिष कहता है
अबकी मानसून अच्छा होगा
चल
आज मैं चाय पिलाता हूँ |
राम राम भैया !
अन्ना कैसे है ?
गुज़र गए !
गुज़र गए !
....
अच्छे आदमी थे |