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Monday, January 9, 2012

एक नि:शब्द कविता के लिए !


सोचता हूँ 
एक कविता 
ऐसी भी लिखूं 
जिसमे 
कोई शब्द ना हों 
जो 
शोर ना करे 
सुनाई ना दे 
दिखाई ना दे 
जो शांत हो ...

जैसे 
बुद्ध है 
जैसे समय है 

नहीं 
वो घडी है 
जो टिक टिक है 
समय तो चुप है 
चलता है बेआवाज 
फिर भी 
 बदल देता है ... सब !

नहीं 
समय नहीं बदलता 
हम ही 
समय के सापेक्ष 
बदलते है ...

हां 
समय धुरी है 
काल्पनिक जगत-वृत्त की 
जिसके 
निकट दूर 
हम बटे है 
बट रहे है 
कण कण हो 
और दुरूह
और क्लिष्ट हो चले है 
बाहर भी 
भीतर भी ...

या तो 
टूट जाना होगा
इकाई तक 
या 
जुड़ना ही होगा 
इकाई तक 
तब तक 
शब्द  ही है 
हमारे बीच 
मैं भी 
कविता भी ...

बस तभी तक तो
सब शब्द ही है 
तभी तक |