जूझ रहा हूँ
स्वयं से
अपनो से
परायों से
व्यवस्था से
कि
लिख सकू
चिर प्रतीक्षित
ईमानदार रचना
जिसमे
उघाड़ दूँ
स्वयं और समाज को
मर्यादित ही
अनावृत्त कर दू
मानवीय संवेदना के
आदि स्रोत
और
उसके प्रयोजन को
निहितार्थ को
परिणिति को
सरल
सहज शब्दों
और
शुद्ध
आडम्बरहीन
रचना द्वारा
गाई भले ना जा सके
पचाई जा सके
ऐसी
सर्वकालिक
मौलिक रचना का
आपकी तरह
मुझे भी
इन्तेजार है ...
सुन्दर कविता तरुण भाई...
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