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Saturday, April 16, 2011

आत्ममुग्ध राष्ट्र में संविधान की ताकत




इस संविधान को 
सैकड़ो बार 
आसानी से 
बदला गया है 
इसके 
अनुच्छेदों में 
छेद कर 
घर बना चुके है 
चूहें 
कंडीकाएं अब 
बस 
काडी भर करती है  
और 
गुदगुदाती है 
अपराधी सरपरस्तों को 
सभी खंड 
उपखंड 
खंड खंड हो 
खँडहर बना चुके है 
अपने ही 
भार में दबी 
हर इबारत को 
हर बंध 
उपबंध 
ढीला है 
समर्थों के लिए 
जिससे केवल 
फंदा बनाया जा सकता है 
मजबूरों के लिए 
वंचितों के लिए 
इसका महँगा जिल्द 
मुह चिढाता है 
फटेहालों को 
सही भी है 
इस मुल्क में 
इस एक किताब 
और 
उस एक झंडे की 
हिफाजत में 
कितने क़ानून है 
जो 
बालाओं के 
चीरहरण पर 
खामोश 
पन्ने पलटता है 
इसी किताब के 
जिनमे 
लिखे है 
पैतरे 
लाज लूट कर 
इज्जत पाने के 
झोपड़े डूबा कर 
महल बनाने के 
करोड़ो चीथड़ों को 
रुलाता 
लहरा रहा है 
शान से तिरंगा 
ऐ आत्ममुग्ध राष्ट्र !
सचमुच 
तेरी शान पर
रश्क होता है |