समय
ऊंट सा
चला जा रहा है
संवेदना रहित
निर्जन
अमानुष
शुष्क
विस्तार में
रस की
चंद बूंदों को
जहा
फंदे बनाकर
रिझाया जा रहा है ...
मृग की तृष्णा
भ्रम नहीं है
पर
क्षितिज पर
बहती
उम्मीदों की नदी
झूठ की लहरे
सब
प्रपंच
किसी और ही
आयाम में
रचे हैं ...
इन बिच्छुओं को
प्यास नहीं लगती
फिर भी
तुम्हारा रक्त
पीने को
रच रहे है
नखलिस्तान
पर
नखलिस्तान
...
और
तुम
कहाँ पहुचोगे
गर पार कर भी लो
ये
कलियुगी
रेगिस्तान ...