Wednesday, April 27, 2011

करवट समय की



समय 
ऊंट सा 
चला जा रहा है 
संवेदना रहित 
निर्जन 
अमानुष 
शुष्क 
विस्तार में 
रस की 
चंद बूंदों को 
जहा 
फंदे बनाकर 
रिझाया जा रहा है ...
मृग की तृष्णा 
भ्रम नहीं है 
पर 
क्षितिज पर 
बहती 
उम्मीदों की नदी 
झूठ की लहरे
सब 
प्रपंच 
किसी और ही 
आयाम में 
रचे हैं ...
इन बिच्छुओं को 
प्यास नहीं लगती 
फिर भी 
तुम्हारा रक्त 
पीने को 
रच रहे है 
नखलिस्तान 
पर 
नखलिस्तान 
...
और 
तुम 
कहाँ पहुचोगे 
गर पार कर भी लो 
ये 
कलियुगी 
रेगिस्तान   ...


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