Tuesday, April 19, 2011

संधि पर संधि है "संधियुग"




हम चले जा रहे है 
अंधी सुरंग में 
हाथ थामे 
लड़ते 
गिरते 
कुचलते 
अपनो को 
परायों को 
जिनके पीछे

वो 
देख नहीं सकते 
अपनी नाक 
और 
निजी स्वार्थ से आगे
 
वो 
चाँद पर 
बस्तियों का 
बाजार बुनते है 

ताश में 
जोकर से हम 
बस 
एक तय 
राजा चुनते है 

संधियाँ 
उघडी पड़ी है 
नयी संधियों के तहत 
हम 
उनमे 
पुरानी संधियों के 
सुराग ढूँढते है  
  
जो 
तयशुदा ढंग से 
छुपा दिए गए है 
और 
निकाल लिए जायेंगे 
उसके द्वारा 

चौथा स्तम्भ 
अब  
श्वान बन चुका है 
अभ्यस्त
प्रशिक्षित 
अनुभवी भी 

वो 
हड्डी फैंकते है 
और ये 
दौड़ पड़ता है 

ज़रा ठहरों 
क्या उसके पीछे 
जाना जरुरी है?
 
अगर है 
तो 
संग विवेक भी 
धर लेना 
क्योंकि 
आगे 
रास्ता वही दिखाएगा 
ये श्वान तो 
तुम्हे बस 
अंधी गलियों में 
छोड़ आयेगा |
उन 
अंधी गलियों में 
बिछी है 
बारूदी सुरंगे 
जो 
अफवाह भर से 
फट पड़ेंगी 

तुम्हे फर्क पडेगा 
क्योंकि 
तुम सोचते हो 
तुम्हारा
एक घर भी तो है
 
ना उनको 
ना उनके महलों को 
नीव की 
आदत ही रही कभी 
ना ही जरुरत थी|

संधिया 
अब 
दरकने लगी है 
उनसे 
मवाद 
रिसती है 
दुर्गन्ध 
आती है 
तुम सम्भलों 
श्वान को तो 
बस 
वही 
भाती है | 

2 comments:

  1. चौथा स्तम्भ
    अब
    श्वान बन चुका है
    अभ्यस्त
    प्रशिक्षित
    अनुभवी भी

    वो
    हड्डी फैंकते है
    और ये
    दौड़ पड़ता है

    सटीक अभिव्यक्ति। आज के मीडिया और व्यवस्था पर इस सन्धिओं से ही तो देश का बेदा डूबने की कगार पर है। रचना बहुत ही अच्छी लगी। शुभकामनायें।

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  2. ताश में
    जोकर से हम
    बस
    एक तय
    राजा चुनते है
    ******


    वो
    हड्डी फैंकते है
    और ये
    दौड़ पड़ता है

    बहुत गहरा कटाक्ष ....सोचने पर विवश करती रचना

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