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Monday, September 27, 2010

लोकतंत्र बनाम जवाबदारी

वो तो चाहते है
के
मै लडू तुमसे
और
वो जीत जाए
उनका काहिलपन
उनकी लाचारी
कैसे भी
छुप जाए
चाहे मंदिर जले
मंदिर टूटे
अस्मते लूटे
या
गिरे लाशें
उन्हें
करने है
नित नए तमाशे
तुम देखो
तुम्हे क्या करना है
मै
अपने विवेक पर हू
उन्हें लगने दो
के
उनकी ही टेक पर हू ...

उनकी ही तर्ज पर
कल
कुछ तुम बोल देना
मै सुन लूंगा
मै
गर कुछ कह भी दू
तुम भी भूल जाना
इन्हें आसान है
इनकी तर्ज पर हराना ..

अब
न्यायालय
और चुनाव आयोग
निरपेक्ष नहीं लगते
तो क्या करे ?
व्यवस्था ना सही
अव्यवस्था के ही साथ
ईमानदारी ना सही
भ्रष्टाचार के हाथ
इस अन्धकार युग से
लोकतंत्र की नैया
कैसे भी खेनी है
वो जो कर चुके
उसकी भरपाई
हमें भी देनी है |