आज फिर
तुमसे
दुःख अपने
कुछ टूटे सपने
बाँट रही हूँ
बोया था
एक बीज तुमने
उसके विकसित
कल्प तरु से
थोड़े काँटे
कुसंग कीट को
सहला समझा कर
छांट रही हूँ
अंतराल के
नीरव
रौरव को
नयन नीर से
अंतस ही में
धीरे धीरे
पाट रही हूँ
इंतज़ार के
औजारों से
जीवन की रेखा
घिसते घिसते
काट रही हूँ
अनुभव के
निष्कलंक
कोमल
रेशों से
वही तुम्हारा
एक ख़्वाब तिरंगा
देसी चरखे पर
कांत रही हूँ ...
तुम्हारी .....