श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय 2 -भाग २
अर्जुन बोला तब श्रीकृष्ण से...
हे मधुसूदन ! हे अरिहंत !!
सामने मेरे खड़े द्विज-जन ,
पूज्य है , पवित्र है
मुझे प्राणप्रिय भी तो है, वही !
है अरु अतिशय महान भी !
सर्वोपरि, वे गुरु द्रोण !
जिनका शिष्य होना ही ,
परम सौभाग्य है मेरा !
है वही मेरी पहचान भी !
वो पितामह , वटवृक्ष से ,
पूज्य भी ! वयोवृद्ध भी !!
कुरु कुल भूषण !
युगपुरुष, निष्कलंक ,
जो शोभा है द्धापर की
ज्यो युग सहिंता हो स्वयं !
क्या चला पाउँगा ,
बाण उनपर मै कभी ?
कल्पना भी की नहीं ,
वह कर्म क्या कर पाउँगा ??
भिक्षा का अन्न भी
कही श्रेष्ठ है , उस रुधिर सने
शापित राज कथित सुख?भोग से ??
धर्म क्या है ?
लड़े इनसे ,
या चरणों में ,
शस्त्र इनके त्याग दू ?
जीत कर भी ,
इनसे भला क्या ,
मिलेगी बस हार तो ??
जिनके स्नेह, कृपा, सानिध्य ,
जिनसे बंधुत्व /सौहार्द ही में ,
जीवन का मोल है कुछ अर्थ है !
ज्येष्ठ पिता के , स्वजनों
सम्बन्धियों का कुलनाश ! आह!!
है सर्वथा अनुचित ,
अनर्थ बस केवल अनर्थ है !!
कायरता कहु इसे ,
या हृदय की दुर्बलता ?
कर्तव्य-विमूढ़ ,
शरण ढूंढता ,
गुरु मान कर ,
बस आप ही से
पूछता हु , अरिसूदन !!
अत्यंत अपरिचित ,
अप्रत्याशित ,
यह शोक महान ,
मिटता नहीं , वरन
बढ़ता ही दिख रहा
विजय के बाद भी
भावी सुखों ? के अति, उपरांत भी ....
न योत्स्यामि गोविन्द !....
संजय बोला, तब ,
राजा / पिता धृतराष्ट्र से !
"युद्ध नहीं करूंगा "
यही राजन !
अहो ! स्पष्ट यही तो कहा !
कहकर चुप हो गया
पृथापुत्र भी , अस्तु संजय भी |
प्रश्नो की
अनवरत झंझा ,
भावी पर मनमानी की
कैसी तत्परता !
अंधा नरेश भी
देख पाता था मानो
धर्म की तुला में
कही भारी हो चले थे
पाण्डु पुत्रों के अतुल्य
त्याग,तप और मनुजता !
छिपा लेना चाहता था ,
हठी , कुतर्की , किससे ?
संजय ही से तो ?
अपने हर मनोभाव को |
जिसे मिले हो दिव्य चक्षु
वह ताड़ ही गया था ,
अधर्मी के बुझे नेत्र दीपों में
आशा अभिलाषा की
कुंठित पतित ,क्षणाभ को
प्रभुकृपा से प्रयास जारी है ....