Tuesday, December 21, 2010

मोक्ष की शतरंज

एक प्यादा
पडा था उपेक्षित
कुछ टूटे खिलौनों के पास
दोस्त ने उठाया
पूछा
होकर उदास
क्यों मित्र
तुम तो बुद्धिजीवी हो
भावनाओं से ऊपर
क्या कोई व्याख्या है
जो
इस मोहरे को
समझ सके
समझा सके
मैंने हंसकर
फिर
तनीक गंभीर हो
विषय को छुवा
कहा
मित्र
उससे पहले
उस बिसात की भी
दास्ताँ कुछ कहूंगा
वरना
अधूरा ही होगा
जो कहूंगा
एक दिन
यू ही
खेलते अचानक
झगड़ पड़े दो भाई
बचपना था
बात भी थी
उतनी ही छोटी
जितना
उनका बचपन था
फाड़ करके
दो बिसाते कर दी गयी
उस दिन
फिर
खेलते रहे
वो दोनों
अपनी अपनी बाजिया
अपनी बिसातों पर
जो
उनकी ही तरह
अधूरी थी
फिर
एक दिन
मोहरा मोहरा
खोते खोते
ये प्यादा बचा है
इसकी तो
नियति ही है
पिटना
मरेगा ही
चाहे मार कर मरे
कभी किसी बिसात पर
फिर चढ़ेगा
इतराएगा
मरेगा मारेगा
कभी कभी तो
बन बैठेगा वजीर
और
कुछ पल
हुक्म भी चला लेगा
मगर अभी
ये मौन है
ये
अभी
ज्ञात मोक्ष है!
और
इसके खो चुके साथी भी
जब तक
चढ़ा नहीं दिए जाते
चुन नहीं लिए जाते
किसी मजबूरी के एवज
तब तक
उनका भी
अज्ञात मोक्ष है !

समझो मित्र
तो
आसान लफ्जों में
मुक्ति ही
मोक्ष है
नहीं तो
मोक्ष भी
बस
अंतराल है |

Thursday, December 16, 2010

राम !

राम !
शिव के लिए
बस एक बार
और
किसी वाल्मीकि
अहिल्या
या
शबरी के लिए
कोटि बार
आखिर
इस नाम रटन में
ऐसा क्या नशा है
कि
हनुमान अब भी
जी रहे है
लड़ रहे है
मृत असुरों की
छोड़ी हुई
आसुरी वृत्तियों
और
चित्त के अनुराग से

जरुर कोई बात रही है
तभी तो
कोई भील..
आदिकवि ,
कोई भीलनी ..
आत्मज्ञानी ,
कोई पतिता..
पाषाण से मनुतनया
और
कोई राक्षस
वैष्णव हो गया |

आखिर
कैसी प्रखरता है
इस "राम" नाम में
जिसने
पाषाण तरा दिए वारिध में
और
जिसका संबल ले
आक्रान्ताओं को
जीत लिया
एक अधुना साधू ने
आज
ऐसे ही तो
नहीं शीश झुकाता
विश्व का जटिल तंत्र
राजघाट पर
भले फिर
अयोध्या में ना बने
प्रपंच और स्वार्थ का "राम मंदिर"
राजघाट पर
एक राम मंदिर में
आज भी जलती है
राम ज्योत
और जहां
हर धर्मनिरपेक्ष
और साम्यवादी
भूल जाता है
कि
वो खिलाफ खडा है
उसी
"राम" नाम के ...

शत शत नमन है
ऐसे ही
"राम" के जियालो को
के
अब तो फैलने दो
दल वालो
इसके अमर उजियालो को |

खैर
तुम चाहो ना चाहो
एक "राम नामी" ही
बहुत है
हर युग में
जो ललकारेगा
हराएगा
तुम्हारे बल-छल को
फिर
चाहे तुम सामने लड़ो
"राम" के
या
उसी से लड़ो , उसी की आड़ में |

"राम"
ही सत्य है अंतिम
मेरा
तुम्हारा
सभी का
अंत में
"राम" नाम ही सत्य है !

Friday, November 26, 2010

तंज

२६/११ या कुछ और भी
इस तरह
उस तरह
एक दिन
हम केलेंडर के
हर पन्ने को
भर देंगे
अपने नपुंशक
मौन धारण
और
मौत पर
जश्न जैसे
जलसों से
जहा
फ़िल्मी सितारे
कवी , गायक
और
नेता
अपना मंच
ढूंढ़कर
बनाकर
बेचेंगे
शर्म और इंसानियत
और
माध्यम रूपी
भेडिये
लगायेंगे सेंध
भोले
भेडचाल के मारे
जनमानस के
थक चुके
टूट चुके
विश्वास में
बेच ही जायेंगे
जीने की एक वजह
और
अर्थी का
कुछ सामान
पता नहीं
रोज
इंसान मरता है
या
शर्म !

Friday, October 22, 2010

"जय श्री कृष्ण "

"भागवत गीता " के नित रसपान के बाद , अनायास ही अन्य संदर्भो में जब दुबारा झांकने का अवसर मिला तो पाया कि उन संदर्भो में झांकने कि द्रष्टि परिपक्वता की अगली पायदान पर थी. बहुत सोचा तो पाया कि जिस प्रकार जीवन कि घटनाओं और संस्मरणों से हम सीखते है ,वह हमारे परिपक्व होने की राह को दुष्कर और दीर्घ बना देती है, और वही जब "भागवत गीता " के आश्रय में रहते, हम मात्र किसी और पर घटित / कल्पित संस्मरण को सुनने मात्र से ही उसका सारभूत अनुभव सिद्ध कर जाते है, और ये सब और अनेक अन्य विभूतियों का संचय व पल्लवन / पुष्पन इतनी सहजता से जीवन वृत्त में घटने लगता है कि लगता है , महात्मा अर्जुन कि ही तरह हमें भी एक सारथी मिल गया है जो गाता जा रहा है "योग्क्षेम्यम्वाहाम्य्हम "|

जीवन कि कठिनाइया और क्लिष्ठातम मनोदशाओं और असाध्य्प्रतिता व्याधि / दुर्योग के निवारण कि इस सुगम नौका जिसके खेवनहार स्वयं श्रष्टा है, उस नौका में विहार करते हम कष्ट में हो यह नितांत असंभव है | बस इसी भावना को संप्रेषित करने का दुस्साहस और अकिंचन प्रयास किया है , आशा करता हू कि "भागवत गीता" के पठान / पाठन से अधिक से अधिक बंधू लाभान्वित होते ही रहेंगे |

"जय श्री कृष्ण "

Thursday, October 14, 2010

तिलिस्मों के देश में

तिलिस्मों के देश में
अब तक
बस
तिलिस्म ही
बुने गए है
नींद और ख्वाब
जो
आजकल
मुफ्त मिलते है
बाटे जाते है
रोटी से सस्ती
कीमत पर
थोक की थोक
टीवी और समाचारों के मार्फ़त
एक पूरी पीढ़ी
जी रही है
बुना गया यथार्थ
और
बड़ी बेशर्मी से
जिसके विवेक
और
प्रज्ञा को
किया जा रहा है
कुंद
छिनकर
मासूमियत
सौपे जा रहे है
भोग
भीड़
और
भीत के बीज
जो बोने है
उन्हें
आगे
ताकि
"उनकी"
अगली पीढ़ी को
मिल सके
आदर्श गुलाम

आदमी का कद
छोटा होता जा रहा है
हर उपलब्धि के साथ
पढ़ाया जा रहा है
लिप्सा की पाठशालाओं में
वेतालों को
तर्क सिद्धि का पाठ

Monday, October 11, 2010

आयाम से परे ...हम - तुम !

आयाम से परे ...हम - तुम !
मेरी सीमाएं
मुझे
बांधती है
तुमसे
और
तुम्हे लगता है
कि
मैं
तुम्हारी सीमाओं में
बंध सकूंगा
किसी तरह
कभी

तुम्हारा
यही चाहना
खिंच देता है
हर बार
एक लकीर
जिसे पार करना
मेरी सीमा से परे है
और
जो
सिमटी हुई है
तुम्हारी
अपनी परिधि के
बहुत भीतर
आत्म परिचय
और
जीवन दर्शन से
सर्वथा अनभिग्य करती
तुम्हे

तुम
और
तुम्हारे बीच कि
वह
रेखा
मैं देख सकता हू
मगर
उसे मिटाने को
लांघनी होगी मुझे
तुम्हारी परिधि
और
तुम हो
कि
इसे उपलब्धि मान
आत्ममुग्ध
जा बैठी हो
किसी और ही बिंदु पर
जो
परे है
इस पूरे आयाम से
जिसका समाधान
शायद
मैं कर पाता
गर
तुम यहाँ होती / कभी / बस एक क्षण ...

Saturday, October 2, 2010

फैसले पर प्रतिक्रिया !

एक ठेलेवाला
गरिया रहा था
दो दिन की
रोजी के घान पर

एक बच्चा
चिंतित था
पढाई में
पिछड़ने पर
हालाकि
कुछ
बच्चे
खुश थे
के
खेल पा रहे थे
पास पड़ोस के
मैदानों में

शहर
बुझा बुझा
अनबूझा
कुछ
डरा सहमा लगा

समाचार
सधे सधे से रहे
पड़ोसी
सटे सटे से रहे

गाव
जो
बाढ़ से नहीं घिरे थे
या जो
अभाव से परे थे
शहर बनने की
प्रसव वेदना में
ये दर्द भी
सह रहे थे

मंदिर
सुबह की आरती
और
मस्जिदे
जुम्मे की नमाज
से ज्यादा
कभी
सरोकार में ना रही थी
पहले कभी इतनी
अचानक
हर गेरुआ पत्थर
और
दूब की चादरों वाली
हरी मजार
बेसबब
नहीं रह गयी थी

बाजार
ठन्डे थे
सौदे गर्म थे
दिल
सुलग रहे थे
मगर
अल्फाज
समझौतों से नर्म थे

ज्वालामुखी पर
पत्थर
तो
रख दिया जनाब
बड़ी खूबसूरती से
मगर
सुख चुके
रक्त के धब्बो
और
टूट चुकी
सदियों पुरानी
सद्भाव की जंजीर का
क्या है कोई जवाब ?