Saturday, February 13, 2010

लय/ छंद में


अम्बर में धरा में
जीवन में
धरा क्या है ?
सोचा, कहा, सुना ,देखा
सही ,
किया क्या है ?

वह भूल से
भूलकर भी
भूलता नहीं
फिर भी
याद करता है ,
पर
याद नहीं
भुला क्या है ?

रसिक है बहुत ,
धनिक भी है
बलवान भी बहुत
जीता, जिया , खाया , पीया ,
प्यारे
गढा क्या है ?

गिरते को उठा ,
खुद संभल ,
बन उजाला
अंधेरों में
लगी ठोकर
गिरा कोई
देखता तू अब भी
खड़ा क्या है ?

मुश्किलों से बड़ी मुसीबत ,
हर मुसीबत पे बड़ा आदमी
अहम् है स्वार्थ है
उनपे खुदा ,
नहीं पता
उससे बड़ा क्या है ?

कृष्ण !


किसके लिए लिखू ,
क्या लिखू क्यों भला ,
इतना सोचकर ,
तय किया ,
कृष्ण के लिए लिखू ,
क्यों ?
कृष्ण ही क्यों ?
क्योकि
वह कृष्ण है |
उतना ही काफी है
मेरे लिए
कृष्ण को
सन्दर्भ करने को
बहाने नहीं खोजने होते
वह यही होता है
हमारे आसपास
हमेशा
खेलता रहता है
ओठों पर
मधुर मोहिनी मुस्कान
और
बांसुरी के साथ
जब वो
नहीं दिखाई देता
उसके स्वर
सुनाई देते है
तब वो
और भी
निकट होता है .
कैसे बताये कोई ,
क्या है कृष्ण ?
मैं बस इतना
कह सकता हू
क्या नहीं है ...
कृष्ण !

स्वयं से


तुम संकल्प हो ,
श्रष्टा हो स्वयं ,
स्वयं ही
खोजते हो
स्वयं को
स्वयं में ,
क्या हो प्रभो !
जगन्नाथ हो
जगदीश्वर हो
दाता तुम्ही हो
स्वयं से
माँगते हो
स्वयं को
देते हो
स्वयं को
स्वयं ही
क्या हो प्रभो !
नहीं जानना मुझको ,
नहीं आती समझ
ये लीलाये तुम्हारी
पर
मै
मेरा विस्मय
और
विवेचना भी
सब
तुम ही तो
हो प्रभो !
स्वयं प्रश्न हो
उत्तर स्वयं
स्वयं से
पूछते हो
क्या हो प्रभो !

अमूल्य हो गया हु !

नित डूबकर
उस नाम रस में
अब
आनंद आता है
अधिक
नहीं जाना था
ये सुख पहले
और
यु ही
नित्य
शिकायतों की टोकरी
भर भर
लगाता रहा फेरी
कोई
मोल नहीं करता
आसुओं का
टूटी आस और
उखड़ती साँसों का
तुम अनूठे धनि हो
पहले ही
चुन लेते हो
उसे जो
सर्वथा निरर्थक है
मूल्यहीन है
जगत के लिए
नहीं कोई
तुमसा सौदागर
तुम्हारे स्पर्श से
जगत शेठ
धनि हो गया हु
अमूल्य था पहले
अब
अमूल्य हो गया हु !

प्रेम क्या है ?

प्रेम क्या है ?
क्या लव , प्रेम है ?
क्या लव ही प्रेम है ?
या ,
लव भी प्रेम है ?
फिर
प्रीत , प्यार, समर्पण
त्याग , अनुराग , और
बहुत कुछ
जो
हम करते है
उन सब से
जो
बदले में
लौटाते है
एक अहसास
जिसमे
उष्मा होती है
पहल होती है
परिणाम की परवाह
नहीं होती
ना होता है
अहम् का भाव ही
वो क्या है ?
जहा
सत्य , प्रेम और करूणा
साथ होते है
एक नजर आते है
जहा
हम जुड़ते है
औरो से
स्वयं से
फिर ना टूटे ऐसे
वही
ध्येय है
मतवाले मन का
वही
घर है
मेरे प्रीतम का

- प्रात: स्मरणीय पु. संत मोररी बापू के सादर चरणों में सादर समर्पित !

आज कुछ ना कुछ लिखूंगा जरुर ,

विषय कोई भी ,
भाव कोई हो चाहे ,
लय मिले ना मिले ,
कहा योग बनता है ,
इस आपाधापी में ,
के
कर सकूँ मन की ,
कर सकूँ
कुछ
सार्थक सा |
क्या पता ,
कल के लिए
ये शब्द ही
बन जाएँ पूंजी ,
और
इन्ही का पुल बनाकर ,
शायद
पांट सकूँ,
सदियों की
उस दुरी को
जो
मेरे और तुम्हारे
बीच है
चाहे भाषा, रंग , जन्म
या ऐसे ही किसी
मनगढ़ंत अन्धानुकृत निर्मूल
बेमतलब भारी से
मगर
मात्र नाम के आधार |
यकीं करों !
मेरा नहीं यार
अपना ही
बस एक बार
सब और से
आँखें मूंदकर
समेट सहेज कर स्व को
देखो
उस आस्था की जमीन को
जिसमें
विश्वाश का अंकुर
फूटना चाहता है
बस थोड़ी करुणा
और प्रेम से सिंचों
कभी कभी
तर्क और व्यवहार से परे जाकर
सहज
इंसान
महज
इंसान
बनकर
कर डालो
कुछ
अकर्म ही !

Tuesday, January 19, 2010

ध्येय

ध्येय

संकटों
की
काली छाया
के उस पार
उम्मीदों
के क्षितिज पर
ये लालिमा
देखों
संकेत है
की
नियति
रच रही है
तुम्हे
रिझाने
मनाने
के
नए अध्याय
की
अब
फिर
कल ही की तरह
तुम
फिर
करवट बदल
उठ बैठोगे
और
चल पडोगे
उस और
जो
तुम्हारा
ध्येय नहीं
बल्कि
तुम
जिसका
ध्येय रहे हो
सदा से !