Saturday, July 3, 2010

सच की बोली !

आज प्रेरणा चाहिए
मुझे भी
और समय को भी
संचित सभी
चुके विवेक
और
रच चुके चूहें
इतिहास |

ठिठोली बन गया
ज्ञान का जरिया
उपकरण सारे
झुनझुने बन
समझ का
मखौल बना चुके

अब सब्जी वाला
भी सुर में लगता है
उससे जो गाते है
गिद्धों और सुवरों
की नैतिकता
भारी पड़ रही है
मानवीय मनीषा पर

यशश्वी धर रहे है
चरणरज चोरों की
सर माथे
धूप सबको दिखती है
सूरज
कही दिखता नहीं

महक का फुल से सरोकार
ख़त्म कर चुके
भावनाओं तक के
ओंछे दुकानदार
अब सिर्फ
सच बचा है
जिसको
खरीदने की औकात
अब तक तो
दिखी नहीं
है कोई !!!
जो सच ख़रीदे ....
खुद बिककर !
बोली एक !
बोली दो !!
....

No comments:

Post a Comment