थोड़ा श्रम
बहुत सी शर्म
और
सारी इंसानियत को
बुझे हुवे
आत्मविश्वास की राख में
लपेट कर
बेचने की कला है
"मार्केटिंग "
"उत्तरदायित्व"
नीचे की ओर
"श्रेय"
ऊपर की ओर
सहज
प्रवाहित है |
स्वीकार्य
ओर
अपरिहार्य
की लड़ाई में
विवेक को
तिलांजलि देना
शोर्य
ओर
समर्पण है जहा |
"ग्राहक देवता है "
जैसे जुमलो के बीच
"आज नकद कल उधार "
जैसी पंक्तियों से
जंग लगे पतिलो
ओर दीमक खायी
लकड़ियों वाली दुकाने ,
अब
सिमटती
सहमति सी ,
शहर के
पुराने
उपेक्षित
कोनो में ...
पड़ी खाद बन रही है |
बुढा गए
घाघ दुकानदार
चकाचौध
ओर
प्रचार
की गर्मी से
झुलसे
तपे
अंतिम साँसे गिन रहे है ...
बाजार के
परिचित
ओर
अपरिचित
कोनो में
बहुराष्ट्रीय
प्रतिष्ठित
"ब्रांड" का कब्जा है ...
जिसे
अतिक्रमण कहना
अशोभनीय
ओर
अनागरीय होगा !
किसान
और
साहूकार
का बेटा
जहां
मजदूर बनकर
चाकरी
करने को
लालायित है |
चमचमाती गाड़ियों ,
उन्मुक्त संस्कृती ने
चौंधिया दी है
युवान आँखें
जो
देख सकती थी
स्वदेश
ओर
सुदेश
से कही आगे |
सेक्स ओर भोग
परोसा जा रहा है
खुला ...
सरकार !
बना रही है
व्यवस्था को
लचीली / लिजलिजी
जो
वैसे
कभी
नहीं बदली
कितनी आत्महत्याओं
आंदोलनों के बाद
अब
लोकतंत्र
और
धर्मनिरपेक्षता
के मुखौटे
बेचते
दलाल ...
दाल ओर चीनी
के सहारे
भाग्यविधाता
बन
सरकार बदलते है !
विचार
विचारधाराएं
बदलते है !!
जैसे
पूरे आधे नंगे मोडल
उतारे हुवे
कपडे बदलते है
अरे
शर्म बेचकर ही
सब हासिल है अगर
तो
सब हासिल चुका कर
एक पल का सुकून
ओर
खुद से आँख मिलाने
की हिम्मत
खरीद कर बताओ
फिर
फैसला करना
वक़्त से ये होड़
कितनी
महंगी पड़ी ???
धर्म ,
इंसानियत,
नैतिकता
और
भावनाओं तक
सब
दाव पर
लगा बैठा है
युग
और
वक़्त
ध्रतराष्ट्र बना
प्रतीक्षा में
बैठा है
मौन
ताकि
सुन सके
महाभारत से
ठीक पहले
पांचजन्य का स्वर
ओर
कृष्ण की बानी
किसी
संजय की जुबानी ...
No comments:
Post a Comment