Tuesday, August 3, 2010

वो....शिखर !

जब मैंने
पहाड़ पर चढ़ने के लिए
सीढिया बनाना
शुरू ही की थी
उन्हें लगा
मुझे
मदद चाहिए होगी
फिर
वो
मेरी जिंदगी में आयी
कई वादों
और
नेक इरादे के साथ
मगर
उसका काम
आसान भी था
मुश्किल भी
आसान यू
के उसे नीचे ही रहना था
ऐसी कोई
शर्त तो नहीं थी
मगर
यही था
जो उसके लिए
सबसे आसान
और
सहज स्वीकार्य होता
ऐसा मान भी लिया गया
उसे
अपना नया काम
बहुत भाया
उसने
बड़ा जी लगाया
मैं
रोज ऊपर जाता
नयी सीढिया
तराशता
अपने लिए
अपनो के लिए
मैं
रोज रात
नीचे लौटता
जब
अन्धेरा हो जाता
सुबह तक
सोया रहता
जुल्फों की
घनी छाव में
चाँद को
देखते हुवे
जो
बहुत हँसीं हुवा करता था
बेशक
उन दिनों
सुबह
मेरा जी तो नहीं चाहता
मगर
वक़्त की धूप
मुझे
कोड़े मार मार कर जगाती
भेजती
ऊपर
जहा
कल
मैं अपना काम
बाकी छोड़ आया था

आज
कई मंजिलो ऊपर
रोज
चढ़ना उतरना
हो नहीं पाता
थक जाता हूँ
वो भी
अब परेशान रहती है
जुल्फों की छाव भी
अब
कम घनी हो रही है
चाँद
मुरझाने लगा है
मेरे
अपने
जो
चढ़ सकेंगे
शिखर पर
मेरे बाद
कही आराम से
उसे सताने लगे है
वो चाहती है
मैं उसे भी
साथ ले चलू
गोद में उठाकर
या
नया शिखर रचू
उसे साथ लेकर
मैं
अनिश्चय में
कभी
उसे
कभी
शिखर को देखता हूँ
जहा
बस
कुछ सीढियों
का फासला बाकी है
फिर
महसूस करता हूँ
उसके
और
मेरे दरम्यान
दुरी बढ़ती जा रही है
शिखर
नजदीक आता जा रहा है
वो
दूर होती जा रही है !

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