Thursday, August 12, 2010

जब तुम घर नहीं होती

मेरा मन भी बैचैन रहता है
अस्थिर भटकता हूँ
जगत में
मन के सुने वन में
अजीब से
ख्यालों से
जूझता हुवा
इन्तेजार करता हु प्रिये!
के कब
तुम्हे लौटा लाऊ
अब तो
बच्चो की याद भी
बहुत आती है
और
उनकी छुट्टिया भी
ख़त्म होने को है
सोचता हु
इस इतवार
किसी बहाने
तुम्हे लिवा लाऊ
मगर
कुछ मजबुरिया है
अब
तुमसे क्या छुपा है
गर्मियों के ये
अंतिम सप्ताह
यानी पानी की किल्लत
तुम यहाँ होती
तो हम तुम रातों को
जाग रहे होते
दो घड़े पीने के पानी के लिए
और
तुम हलकान रहती घर पर
गर्मी के मारे |
बड़का तो चलो
अब गर्मी सह लेता है
मगर छुटकी
उसे कैसे सुलाती तुम
फिर
इस विकराल समस्या
के अलावा
कई बड़ी छोटी
समस्याए है |
खडी बैठी
के एक एक कर
हल कर तो रहा हूँ
मगर
कभी चादर छोटी पड़ जाती है
कभी समस्या फ़ैल जाती है
इन्हें समेटने सहेजने और सुलझाने में
पूरा दिन
उलझता हूँ
फिर
रसोई में भी लगता हु
कच्ची पक्की खाकर
गुजारा कर रहा हु
समझ ही नहीं आता
जी रहा हूँ
या मर रहा हु
हां पर
इन्तेजार कर रहा हु
तुम बस
पहली खबर पाते ही
बिस्तरा बाँध लेना
मैं अगली गाडी से
पहुच जाउंगा
इस रविवार डार्लिंग
तुम्हे
जरुर लिवा लाऊंगा |

1 comment:

  1. ज़िन्दगी से जूझते इंसान का कमोबेश ऐसा ही हाल है उसका आपने बखूबी चित्रण किया है।

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