ना एक अद्वितीय नाम ही
दे पाए विश्व को
उसने कहा इंडियन
और हम
इंडियन हो गए
कुछ नाखुदा सरफिरे
आधी रात को
बैठे और जमीन बाट आये
बोले
यही आजादी है
विभाजन की पीड़ा
महाजनी सूद
शिक्षा के अकाल
महामारियों की बाढ़ में
बहता कोई जन समूह
जा पहुहा लालकिले
रेडियो पर
तुरही बजा दी गयी
क्यों ?
कभी दिल्ली
बन जाती है
राजधानी
कभी
दिल
कभी एक राज्य
क्यों ??
नहीं मिलती
दक्खिन या पूरब को
केन्द्रीय भूमिकाएं
मैं कहता हूँ
तुम कब नकारोगे
इस कागजी देश को
जिसे दुनिया ने
ताश के जोकर की तरह
कब का छाट रक्खा है
क्या अब भी
रीढ़ हीन कापुरुषों को
पिछलग्गू नारियों को
संसद नाम के
अभिजात्य क्लब भेजने
किसी उजड़ी सरकारी स्कुल में
बिकी हवी पुलिसिया हुकूमत से
डंडे खाकर बेइज्जत होकर
वोट डालने जाओगे
अगर अब भी
थोड़ी आत्मा
और
स्वतन्त्रता की ललक
बची हो
तो
अगली ही सांस पर
नकार देना
ऐसे खोखले प्रजातंत्र
और
दम्भी संविधान को
जो भीड़ देख कर
स्वागत नहीं करता
हग देता है |
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