मैं क्या कह दू ?
खुद से !
कि
मौन हो जाऊ...
बंद कर दू
व्यर्थ जतन सारे ,
स्वयं को ही
मनाने के...
आते हो जब मुझे
सौ बहाने !
रूठने के
टूट जाने के !
अपनी ही
गलियों में !
भटकता
फिर रहा हूँ
सदियों से...
तुम
ये कहते हो ,
तुम
जान पाए थे !
कि
जिस लम्हे,
मैंने
धरा था मौन...
और तुम
बौखलाए थे ?
बौखलाए थे ?
मैंने
मुखर होना
वही तो सीखा था !
मुखर होना
वही तो सीखा था !
वहीँ
कुछ हुनर भी
आजमाए थे ...