हे राजनीति !
तुम फिर चर्चा में हो
वैसे हर बार
तुम ही होती हो
हर चर्चा का कारण
मगर
इस बार
तुम
सोद्देश्य चर्चा में हो
उठ नहीं सकती
भाग नहीं सकती
जनता , नेता , अधिकारी
गुंडे , छात्र , व्यवसायी
गृहणी , प्रेयसी ,
माँ - पिता
दादा -पोता
अपाहिज , अछूत
अगड़ा पिछड़ा
.....
सब
यहाँ तक की
सभी
छोटे बड़े
भिखारी भी
चश्मों
और बगैर चश्मों के
देखेंगे तुम्हें
तथष्ठ भाव से
पहली बार
एकमत्त होकर
उस भाषा में
जो
अनचाहे
अनजाने
राष्ट्र भाषा
बन गयी है
"सिनेमा "
अब कोई मुद्दा
तुम तक आकर
विवाद
नहीं बन पायेगा
इस बार
तुम स्वयं
कटघरे में हो
ये
कच्चे सच्चे न्यायाधीश
अपनी
काली सफ़ेद कमाई से
काला सफ़ेद टिकट लेकर
स्वत: प्रतिबद्ध हो जायेंगे
भले
उनमे
राष्ट्रगान पर खड़े होने का
शऊर ना हो
तुमने जो
व्यस्त कर रक्खा था
उन्हें
मनघडंत
इतिहास ,
विवादास्पद न्याय
और
हास्यास्पद व्यवस्था
के
दुरूह ताने बाने में
अब वे
कुछ क्षण
आजाद होकर
अँधेरे में
उजाले की
किरण ढूंढेंगे
वहा परदे पर
नायिका नहीं
तुम्हारे कपडे उतरेंगे
सीटियों
गालियों
और
भड़ास के बीच
शायद
कथ्य ना सही
विषय ही
याद रह जाए
उन्हें
ताकि वो
तुम्हारा
दामन
फिर साफ़ कर सके
उस एक दिन
इस विषय को
याद कर
जिस दिन
तुम्हारी ही व्यवस्था
प्रचार पर
विराम लगाती है
चुनाव के
ठीक
एक दिन पहले
"राजनीति "
तुम्हारा स्वागत है
खुले मन से
के
तुमने ही
बदला है
जो पुराना था
अब
तुम्हे बदलना है
नया होना है
साफ़ होना है
काले धन की गटर
और
उसमे पनपे मच्छरों से
आजाद होना है
और
हमारी आजादी
वो तो अभी बाकी है
मेरे दोस्त ...
आजादी
अभी
बाकी है मेरे दोस्त !
फिर कोई लोभ का रावण , साधू सा वेश धर वोट मांगता है | शहीदों ने खिंची थी जो लक्ष्मण रेखा वो फिर लहू मांगती है || Tarun Kumar Thakur,Indore (M P) "मेरा यह मानना है कि, कवि अपनी कविता का प्रथम पाठक/श्रोता मात्र होता है |"
Friday, June 4, 2010
Thursday, June 3, 2010
बादल कब बरसोगे ?
बादल कब बरसोगे ?
अभी !
या
बुवाई के बाद !!
देखो
तुम
वैसा मत करना
जैसा सब करते है
सामने से गुजरते है
मगर मिलते नहीं
पिछले सावन
ले गए थे
सुख चैन सारा
अब तो लौटा दो
कितना ब्याज
चढ़ आया है
लाला भी
अब
खेतों को
अपना समझने लगा है
उसकी भूखी नजरे
मांस नोचती है
बेटियों के
उघडे बदन से
तुम इस बार
कपड़ा बन बरस जाओ
रोटी बन बरस जाओ
तो चिंता छूटे
मगर तुम भी
बही खातों में
दर्ज हो
बढ़ता हुवा
कर्ज हो
सबके कर्मो का
हिसाब करते हो
तब
थोड़ा बरसते हो
तो
इस बार
उधार बन बरसों
खेती में खटते
पिया का
प्यार बन बरसों
ओ बादल
तुम
बहार बन बरसों
हमारी सरकार बन बरसों
जो
हरे पेड़ काटती है
हरे नोट छापती है
दारु कम्बल बाटती है
हां
तुम चुनाव बन बरसों
अभी !
या
बुवाई के बाद !!
देखो
तुम
वैसा मत करना
जैसा सब करते है
सामने से गुजरते है
मगर मिलते नहीं
पिछले सावन
ले गए थे
सुख चैन सारा
अब तो लौटा दो
कितना ब्याज
चढ़ आया है
लाला भी
अब
खेतों को
अपना समझने लगा है
उसकी भूखी नजरे
मांस नोचती है
बेटियों के
उघडे बदन से
तुम इस बार
कपड़ा बन बरस जाओ
रोटी बन बरस जाओ
तो चिंता छूटे
मगर तुम भी
बही खातों में
दर्ज हो
बढ़ता हुवा
कर्ज हो
सबके कर्मो का
हिसाब करते हो
तब
थोड़ा बरसते हो
तो
इस बार
उधार बन बरसों
खेती में खटते
पिया का
प्यार बन बरसों
ओ बादल
तुम
बहार बन बरसों
हमारी सरकार बन बरसों
जो
हरे पेड़ काटती है
हरे नोट छापती है
दारु कम्बल बाटती है
हां
तुम चुनाव बन बरसों
Wednesday, June 2, 2010
छोटी छोटी बातें
समय पर न्याय
उचित मूल्य पर सामान
करों से राहत
शिकायत पर सुनवाई
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
रिश्तो में सुविधा
सुविधा का रिश्ता
खाने खिलाने का शिष्टाचार
टूटे वादे
अच्छी यादें
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
आचरण की पवित्रता
आँखों में पानी
धर्म से सरोकार
कर्म में निष्ठा
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
सहजता
सुलभता
सब्र
अनुभव
आग्रह
सराहना
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
मगर
इन्ही छोटी मोटी बातों ने
जीवन को
मीठा बनाया
नमकीन भी
अब
सब खारा खारा लगता है
जीवन भंडारा लगता है
जहां
भीख को
प्रसाद कहकर
मन हल्का करते है
देते हुवे हाथ
लेते हुवे हाथ
खैर
सब छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं ...
!?!
उचित मूल्य पर सामान
करों से राहत
शिकायत पर सुनवाई
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
रिश्तो में सुविधा
सुविधा का रिश्ता
खाने खिलाने का शिष्टाचार
टूटे वादे
अच्छी यादें
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
आचरण की पवित्रता
आँखों में पानी
धर्म से सरोकार
कर्म में निष्ठा
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
सहजता
सुलभता
सब्र
अनुभव
आग्रह
सराहना
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
मगर
इन्ही छोटी मोटी बातों ने
जीवन को
मीठा बनाया
नमकीन भी
अब
सब खारा खारा लगता है
जीवन भंडारा लगता है
जहां
भीख को
प्रसाद कहकर
मन हल्का करते है
देते हुवे हाथ
लेते हुवे हाथ
खैर
सब छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं ...
!?!
Sunday, May 2, 2010
मैं सिर्फ सच कहूंगा ...
मैं सिर्फ सच कहूंगा ...
सच के सिवा कुछ नहीं |
इतनी शपथ लेने के बाद
मैंने देखा
कोई नहीं चाहता था
सच सुनना
उस गहरी खामोशी
का मतलब
मैं समझ भी रहा था
और
सोच रहा था
तोड़
इस शपथ का
जो
मैंने
अभी अभी ली थी
पवित्र पुस्तक पर
हाथ रख कर
मैंने बहुत सोचा
पर
याद नहीं
मैंने
उस पवित्र पुस्तक को
कभी पढ़ा भी था
हां उसकी महिमा
मेरे जहन में भरी थी
जो
मुझे
रोक रही थी
शपथ तोड़ने से
मैंने फिर भी सोचा
कोई तो राह होगी
कि
कसम भी रह जाएँ
और
पुस्तक का मान भी
मैंने ये भी सोचा
क्या
पहले कभी
किसी ने भी
तोड़ी ना होगी शपथ
मुझसे पहले ?
फिर
ये किताब
वो कुर्सी
और
वो
न्यायाधीश
जीवित कैसे रहें??
क्या
भ्रष्ट व्यवस्था
श्राप
और
ईश्वरीय अवमानाओं से
कहीं ऊपर है? ??
आखिर
कब तक
शपथ का उत्तरदायित्व
मुझ अकेले को
ढोना होगा?
कौन करेगा
इनका फैसला ??
जो
साक्षी है
अनगिनत झूठी शपथों के
जो
अन्याय को
आश्रय देते हैं
उस किताब में
जिसे
संविधान कहते है||
जो
गीता
कुरआन
और बाईबल का
रोज अपमान करवाती है
हमारे अपने ही हाथों
और
हम मजबूर है
क्योंकि
धर्मनिरपेक्ष
और
इंडियन होने की
इतनी कीमत तो
चुकानी होगी ना ||
सच के सिवा कुछ नहीं |
इतनी शपथ लेने के बाद
मैंने देखा
कोई नहीं चाहता था
सच सुनना
उस गहरी खामोशी
का मतलब
मैं समझ भी रहा था
और
सोच रहा था
तोड़
इस शपथ का
जो
मैंने
अभी अभी ली थी
पवित्र पुस्तक पर
हाथ रख कर
मैंने बहुत सोचा
पर
याद नहीं
मैंने
उस पवित्र पुस्तक को
कभी पढ़ा भी था
हां उसकी महिमा
मेरे जहन में भरी थी
जो
मुझे
रोक रही थी
शपथ तोड़ने से
मैंने फिर भी सोचा
कोई तो राह होगी
कि
कसम भी रह जाएँ
और
पुस्तक का मान भी
मैंने ये भी सोचा
क्या
पहले कभी
किसी ने भी
तोड़ी ना होगी शपथ
मुझसे पहले ?
फिर
ये किताब
वो कुर्सी
और
वो
न्यायाधीश
जीवित कैसे रहें??
क्या
भ्रष्ट व्यवस्था
श्राप
और
ईश्वरीय अवमानाओं से
कहीं ऊपर है? ??
आखिर
कब तक
शपथ का उत्तरदायित्व
मुझ अकेले को
ढोना होगा?
कौन करेगा
इनका फैसला ??
जो
साक्षी है
अनगिनत झूठी शपथों के
जो
अन्याय को
आश्रय देते हैं
उस किताब में
जिसे
संविधान कहते है||
जो
गीता
कुरआन
और बाईबल का
रोज अपमान करवाती है
हमारे अपने ही हाथों
और
हम मजबूर है
क्योंकि
धर्मनिरपेक्ष
और
इंडियन होने की
इतनी कीमत तो
चुकानी होगी ना ||
Tuesday, April 27, 2010
आम का मौसम है आम चूसिये
आम का मौसम है आम चूसिये ,
दो चार लेकर जेब ठुसिये
क्या पता ,
फिर
आम आम ना रहे
क्योंकि
एक चुनाव काफी है
आम के ख़ास होने को
ये डिटर्जेंट काफी है
सारे दाग धोने को
पर
ससुरे चुनाव भी
आजकल टलने लगे है
खोटे सिक्के भी
दस दस साल चलने लगे है !
एक आम सी दरख्वास्त है
हर ख़ास-ओ-आम से
जो गए हो
दफ्तर-ऐ-सरकार
कभी किसी काम से
मिले जरुर होंगे
आवाम से
जिसे
सलीका सिखलाते है
वो
ताकि
आम बना रहे आम
तभी तो
आम हर मौसम में
पकने लगे है
कुछ डालियों से पककर
टपकने लगे है
तुम
टपके हुवो की
जमात के दिखते हो
आम तो खा सकते नहीं
अलबत्ता
गुठलियाँ जरुर गिनते हो
गुठलियों से याद आया
आजकल
गुठलियों के भी
दाम मिलते है
इसलिए
बिना गुठलियों के भी
आम मिलते है
जो
बोतल में बंद
बड़े इंतजाम से आते है
कुछ नादान
आज भी
आम चूस के खाते है
गुठलियों से
पेड़ उगाते है
जिन्हें
सरकारी पशु
चर जाते है
आम आजकल
पनप कहाँ पाते है
जो थोड़े आम
बाजार तक आते है
ऊची कीमत पे
बिक जाते है
हमारे तुम्हारे लिए तो
वो केवल
विज्ञापन में नजर आते है
जहा
हर बार
कुछ नए जुमले
दोहराए जाते है
हम फिर
हसीं चेहरों
और
शीतल पेय से
भरमाये जाते है
तो
ऐ मेरे आम इंसान
अब तो पको
टपको
उगो
जड़े फैलाओं
जर्जर व्यवस्था की
नीव तक
ताकि
आम आम बना रहे
क्योंकि
आम तभी तक ख़ास है
जब तक आम है
आम से गुठली
गुठली से पेड़ ही
आम का सही अंजाम है |
दो चार लेकर जेब ठुसिये
क्या पता ,
फिर
आम आम ना रहे
क्योंकि
एक चुनाव काफी है
आम के ख़ास होने को
ये डिटर्जेंट काफी है
सारे दाग धोने को
पर
ससुरे चुनाव भी
आजकल टलने लगे है
खोटे सिक्के भी
दस दस साल चलने लगे है !
एक आम सी दरख्वास्त है
हर ख़ास-ओ-आम से
जो गए हो
दफ्तर-ऐ-सरकार
कभी किसी काम से
मिले जरुर होंगे
आवाम से
जिसे
सलीका सिखलाते है
वो
ताकि
आम बना रहे आम
तभी तो
आम हर मौसम में
पकने लगे है
कुछ डालियों से पककर
टपकने लगे है
तुम
टपके हुवो की
जमात के दिखते हो
आम तो खा सकते नहीं
अलबत्ता
गुठलियाँ जरुर गिनते हो
गुठलियों से याद आया
आजकल
गुठलियों के भी
दाम मिलते है
इसलिए
बिना गुठलियों के भी
आम मिलते है
जो
बोतल में बंद
बड़े इंतजाम से आते है
कुछ नादान
आज भी
आम चूस के खाते है
गुठलियों से
पेड़ उगाते है
जिन्हें
सरकारी पशु
चर जाते है
आम आजकल
पनप कहाँ पाते है
जो थोड़े आम
बाजार तक आते है
ऊची कीमत पे
बिक जाते है
हमारे तुम्हारे लिए तो
वो केवल
विज्ञापन में नजर आते है
जहा
हर बार
कुछ नए जुमले
दोहराए जाते है
हम फिर
हसीं चेहरों
और
शीतल पेय से
भरमाये जाते है
तो
ऐ मेरे आम इंसान
अब तो पको
टपको
उगो
जड़े फैलाओं
जर्जर व्यवस्था की
नीव तक
ताकि
आम आम बना रहे
क्योंकि
आम तभी तक ख़ास है
जब तक आम है
आम से गुठली
गुठली से पेड़ ही
आम का सही अंजाम है |
Wednesday, April 21, 2010
अपने जन्मदिन पर खुद को ...
अपने जन्मदिन पर खुद को ...
आज उदास नहीं होउंगा
नाही निराश होने दूंगा
स्वयं को
थोड़ा मुश्किल है
जब
सब और से घेरा हो
अंधेरों ने
अगर ये रात है
तो मैं सो नहीं सकता
दिन है
तो रो नहीं सकता
थक नहीं सकता
बैठ नहीं सकता
रुक नहीं सकता
ना ही झुकूंगा कभी
अन्याय
और
अन्याय के परोक्ष
पक्षधरों के सामने
मेरे कंधे झुके जा रहे है
मगर
ये थकान है
निराशा नहीं
एक दिन इसे भी
जीत लूंगा
मेरा वादा है
खुद से !
आज उदास नहीं होउंगा
नाही निराश होने दूंगा
स्वयं को
थोड़ा मुश्किल है
जब
सब और से घेरा हो
अंधेरों ने
अगर ये रात है
तो मैं सो नहीं सकता
दिन है
तो रो नहीं सकता
थक नहीं सकता
बैठ नहीं सकता
रुक नहीं सकता
ना ही झुकूंगा कभी
अन्याय
और
अन्याय के परोक्ष
पक्षधरों के सामने
मेरे कंधे झुके जा रहे है
मगर
ये थकान है
निराशा नहीं
एक दिन इसे भी
जीत लूंगा
मेरा वादा है
खुद से !
Tuesday, April 20, 2010
गुलाम
फिर बनी
उनकी सरकार
सब
नौकर
हो गए
सता
पर
काबिज
फिर
संतरी और
जोकर
हो गए !
वंशवाद
और
सामंती
शासन की
स्मृती
मिटती नहीं
गुलाम
मानस से
परिवर्तन
से
जिनका
जी
घबराता है
वो
निश्चित ही
सिंह
की
संतान नहीं !
उनकी सरकार
सब
नौकर
हो गए
सता
पर
काबिज
फिर
संतरी और
जोकर
हो गए !
वंशवाद
और
सामंती
शासन की
स्मृती
मिटती नहीं
गुलाम
मानस से
परिवर्तन
से
जिनका
जी
घबराता है
वो
निश्चित ही
सिंह
की
संतान नहीं !
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