Tuesday, January 9, 2024

कवि पर कविता , कविता में कवि !



कोई एक कारण 
कोई एक विषय 
नहीं होता सबब 
ना ही छिपी कुंठाए 
या व्यग्र भावनाएं  
बन सकती है आधार 
सृजन का 
जब बात कविता की हो 
तो संवेदना चाहिए  
वृहद्द मानस और उस पर 
निर्मल ह्रदय चाहिए 
उद्दात्त अंत:करण 
और निर्लिप्त प्रतिध्वनी 
बनाती है कवि को 
बहुत धीरे धीरे 
काट छील कर 
करती है पैना 
स्निग्ध भी 
कटु , तिक्त भी 
सभी रसायन तो 
वह भी 
जीवन ही से लेता है 
अपने एक जीवन में 
अनेक अवतरण जी लेता है 
वो कवि ही है 
जो अतीत को जोड़ता है 
भविष्य के स्वप्नों से 
जब चाहे घूम आता है 
बचपन की गलियों में 
हाथ जोड़ आता है 
किसी मंदिर में 
माथा टेक आता है 
किसी समाधि पर 
सभी सरहदे 
और तमाम कायदे 
नहीं बाँध सकते 
उसकी कल्पना 
और सृजन को 
वो नग्न भी है 
और नख-शिख श्रृंगार भी 
बहुत  धीरे से करता है 
भीतर तक शंखनाद भी 
कवि बस बीज नहीं बोता 
सींचता है विचार को 
वट होने तक 
बस होम भर नहीं करता 
स्वाहा भी होता है 
कवि जब होता है 
सामने तब भी 
सृजन ही में होता है 
वो कवि कैसा 
जो केवल 
अपनी पीड़ा पर रोता है !

हे माँ हिंदी भावभरी !


हिंदी का मान हमसे है !
हिंद का अभिमान है, हिंदी |
इतनी सी आस और है बंधू
विश्वभाल दमके ये बिंदी ||

अपनी भाषा अपना गौरव ,
जाने कब के भूले तुम हम !
गैरों को पग पग पे नवाजा ,
अपना मजहब भूले तुम हम !

कैसे हिन्दी का परचम लहरे ,
कैसे साथ साथ तिरंगा फहरे !
हिंदी की सीढ़ी पर कितने पहरे ,
अलगाव तुष्टि के घाव है गहरे !

इसमे ही बसा भारी जनाधार ,
कितनो की करती कश्ती पार !
आज मातु है स्वयं मझधार ,
कहने को जन गण भले अपार !

धिक्कार करो इस जीवन पर ,
यदि निज भाषा का मान ना हो !
अधिकार करो उस सत्ता पर ,
जिसे निज गौरव का भान ना हो  !

सजीव शब्दों का संधान करो  ,
निज भाषा का अनुसंधान करो  !
फिर धरो प्रत्यंचा भावो की  ,
सब सुलभ लोभ का दान करो  !

हो कर्मवीर तुम हो रणधीर !
क्यों काँधे को झुला रहे  ?
क्यों शिथिल हुई तनी भवे !
क्यों भविष्य को रुला रहे  !!

निज घर से निज आँगन से ,
तुम माता का आह्वान करो  !
हे मातृभाषा ! हे भावभरी !!
आओ ! हो प्रगट,
हिंद उद्धार करो !!

व्याख्याएँ



एक शब्द में 
समेट लेता था
मैं पहले 

रिश्तें ,
आदर 
और 
संवेदनाएं |

तुमने 
जब तक 
दिए ना थे ...

प्रचलित पर्याय |
नाकारों ने 
पीकदान की तरह
थूक रक्खे है ,
चारो तरफ ...

सरकारी दीवारों ,
धर्मशालाओं 
और मंदिरों के 
पवित्र प्रान्गनो तक...  

द्विअर्थी मुहावरे 
जिनके बीच 
दुरूह हो गयी है ,
आत्मीय शब्दों की 
सहज व्याख्याएं !

और हम 
हैं कि 
घुसने देते है ,
इस शब्द प्रदूषण को 
घर के भीतर !!

जहां 
बच्चे भी 
तुतलाते हुवे 
जवान हो गए है ...

अचानक !!!.....
नहीं बंधू !
सब अचानक ही तो 
नहीं होता ना ???
हमेशा ...



Tuesday, June 20, 2023

कही अनकही कविता हूँ मैं

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समर शेष बहुत जीवन का
अभी कहा जीता हूँ मैं ,
बाहर से बैचैन बहुत 
भीतर तक रीता हूँ मैं !

मौन मंथन रत एकाकी ,
विकल हला पीता हूँ मैं !
एक स्वांस में मरा अभी ,
एक स्वांस जीता हूँ मैं !

संग्राम बीच ही रची गयी ,
विस्मृत, विगत, रत गीता हूँ मैं !
मर्यादा की बलिवेदी पर, चिर 
अर्पित, मानस धर्मा सीता हूँ मैं !

लोभ बहुत है, मोह बहुत 
करने कहने को अरमान बहुत !
क्या कहूँ ? समय बीता मुझ पर ,
या विराट समय पर बीता हूँ मैं ?

सहज बनावट, पर नहीं सरल ,
अगढ़, निपट, ढिठा हूँ मैं  !
पकड़ नहीं पाया खुद को ,
स्व से चिपटा चीठा हूँ मैं !

क्या करू स्वयं को अनुदित ,
कटु अमिय, करील सा मीठा हूँ मैं !
बाहर से बैचैन बहुत ,
भीतर तक रीता हूँ मैं !




Thursday, June 15, 2023

पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः - धर्म के आचरण में भी दुविधा, क्यों ? प्रभु !!

 


अर्जुन उवाच  कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन | इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन || ४ ||

श्रीमद्भगवद् गीता  अध्याय 2 -भाग २

 

श्रीमद्भगवद् गीता  अध्याय 2 -भाग १  से आगे



अर्जुन बोला तब श्रीकृष्ण से...
 
हे मधुसूदन ! हे अरिहंत !!
सामने मेरे खड़े द्विज-जन ,
पूज्य है , पवित्र  है
मुझे प्राणप्रिय भी तो है, वही !
है अरु अतिशय महान भी !

सर्वोपरि, वे गुरु द्रोण !
जिनका शिष्य होना ही ,
परम सौभाग्य है मेरा !
है वही मेरी पहचान भी !

वो पितामह , वटवृक्ष से ,
पूज्य  भी ! वयोवृद्ध भी !!
कुरु कुल भूषण !
युगपुरुष, निष्कलंक ,
जो शोभा है द्धापर की 
ज्यो युग सहिंता हो स्वयं !

क्या चला पाउँगा ,
बाण उनपर मै कभी ?
कल्पना भी की नहीं ,
वह कर्म क्या कर पाउँगा ??

भिक्षा का अन्न भी
कही श्रेष्ठ है , उस रुधिर सने
शापित राज कथित सुख?भोग से ??

धर्म क्या है ?
लड़े  इनसे ,
या चरणों  में ,
शस्त्र इनके त्याग दू ?
जीत कर भी ,
इनसे भला क्या ,
मिलेगी बस हार तो ??

जिनके स्नेह, कृपा, सानिध्य ,
जिनसे बंधुत्व /सौहार्द ही में ,
जीवन का मोल है कुछ अर्थ है !
ज्येष्ठ पिता के , स्वजनों
सम्बन्धियों का कुलनाश ! आह!!
है सर्वथा अनुचित ,
अनर्थ बस केवल अनर्थ है !!

कायरता कहु इसे ,
या हृदय की दुर्बलता ?
कर्तव्य-विमूढ़ ,
शरण ढूंढता ,
गुरु मान कर ,
बस आप ही से
पूछता हु , अरिसूदन !!

अत्यंत अपरिचित ,
अप्रत्याशित ,
यह शोक महान ,
मिटता नहीं , वरन
बढ़ता ही दिख रहा
विजय के बाद भी
भावी सुखों ? के अति, उपरांत भी  .... 

न योत्स्यामि गोविन्द !....

संजय बोला, तब ,
राजा / पिता धृतराष्ट्र से !
"युद्ध नहीं करूंगा "
यही राजन !
अहो ! स्पष्ट यही तो कहा !
कहकर चुप हो गया
पृथापुत्र भी , अस्तु संजय भी |

प्रश्नो की
अनवरत झंझा ,
भावी पर मनमानी की
कैसी तत्परता !

अंधा नरेश भी
देख पाता था मानो
धर्म की तुला में
कही भारी हो चले थे 
पाण्डु पुत्रों के अतुल्य
त्याग,तप और मनुजता !

छिपा लेना चाहता था ,
हठी , कुतर्की , किससे ?
संजय ही से तो ?
अपने हर मनोभाव को |

जिसे मिले हो दिव्य चक्षु
वह ताड़ ही गया था ,
अधर्मी के बुझे नेत्र दीपों में
आशा अभिलाषा की
कुंठित  पतित ,क्षणाभ को
 
प्रभुकृपा से प्रयास जारी है ....


Saturday, May 27, 2023

तकनीक की बलि चढ़ता बचपन



कितने उदास है
बच्चे आजकल
यु ही नहीं
चिपके रहते वो
फोन से , हर पल 

एक पेड़
एक चिड़िया भी तो
दोस्त नहीं उनकी
थक गए है
भाई बहन भी अब
झगड़ झगड़

तमाम साधनों से
झरती मनोरंजन
की बाढ़ में भी
बोरियत
ढूंढ लाते है वो

इस उम्र में ही
अनुभवहीन
कल्पनाओं में
थका रहे खुद को

संघर्ष नहीं
मनोरंजन की
ठंडी भट्टी में
गला रहे खुद को

माँ बाप
लाचार से
अँधियो में
अंधे प्रचार की
दीपों को
जलाए रखने की 
उम्मीद
और
प्रार्थना भर
कर सकते है

तमाम तिलिस्म है
कैद है बचपन
दिन में सौ बार
फना हो कर
फिर मर सकते है

क्या बचेंगी 
संवेदनाएं भी
भावी पीढ़ी पे
भरोसा ये कर सकते है ?


Saturday, May 20, 2023

भविष्य की नीव में




गीता का रहस्य /
उसका कर्मवाद /
प्रेमचंद की
पिसनहारी / से
गोर्की के
आवारा मसीहाओं तक..

बहुत सटीक
संदर्भित है
जीवन
  
पता नहीं क्यों
हम
पुराने संदर्भो में
नए आयाम तलाशते है ?

शायद
हमारी
इसी तंद्रा ने
हर ली है,
जीवन की सरलता !

अनुभव बिना ज्ञान
और
ज्ञान बिना अनुभूति ?

बन रहा है
दुरूह भविष्य
जिसकी बुनियाद में
जब कभी तलाशोगे
तर्क ही निकलेंगे ...