कोई एक कारण
कोई एक विषय
नहीं होता सबब
ना ही छिपी कुंठाए
या व्यग्र भावनाएं
बन सकती है आधार
सृजन का
जब बात कविता की हो
तो संवेदना चाहिए
वृहद्द मानस और उस पर
निर्मल ह्रदय चाहिए
उद्दात्त अंत:करण
और निर्लिप्त प्रतिध्वनी
बनाती है कवि को
बहुत धीरे धीरे
काट छील कर
करती है पैना
स्निग्ध भी
कटु , तिक्त भी
सभी रसायन तो
वह भी
जीवन ही से लेता है
अपने एक जीवन में
अनेक अवतरण जी लेता है
वो कवि ही है
जो अतीत को जोड़ता है
भविष्य के स्वप्नों से
जब चाहे घूम आता है
बचपन की गलियों में
हाथ जोड़ आता है
किसी मंदिर में
माथा टेक आता है
किसी समाधि पर
सभी सरहदे
और तमाम कायदे
नहीं बाँध सकते
उसकी कल्पना
और सृजन को
वो नग्न भी है
और नख-शिख श्रृंगार भी
बहुत धीरे से करता है
भीतर तक शंखनाद भी
कवि बस बीज नहीं बोता
सींचता है विचार को
वट होने तक
बस होम भर नहीं करता
स्वाहा भी होता है
कवि जब होता है
सामने तब भी
सृजन ही में होता है
वो कवि कैसा
जो केवल
अपनी पीड़ा पर रोता है !