ना नर रहे
ना नरेश ही
बस
गणतंत्र है
जिसके
कई
गूढ़ मन्त्र है
जो साध लिए
तो होओगे
उस तरफ
जहां
सरकार है
व्यापार है
वरना
इधर
जहां
सब लाचार है |
विनम्रता के
मुखौटे लगाए
परिचारिका सी
गणाध्यक्ष है
लम्पट नेता
और
छटे हुवे
मंत्री है
दागी अफसर
और
दयालु अपराधी भी है
सचमुच
दौर पूरा
जोर सारा
उदारीकरण पर है |
न्यायालय
तूती से बोलते है
माध्यम
हकलाते से
लगते है
जनता
बढ़ जाती है
हर जन गणना में
और
बंट भी जाती है
राष्ट्र भाषा
मौन है |
राष्ट्रीय पशु
नेता है
जो चर जाते है
सकल घरेलु आय
और
उत्पाद भी
बचे खुचे
हौसलों के साथ
इस राष्ट्र को
आत्मप्रवंचना की
शाश्वत बीमारी है
मूक होकर
देखना
सहना
संविधान प्रदत्त
लाचारी है
वैचारिक गुलामी
और
नैतिक पतन का
अंधा युग
अब चरम पर है
लगता है
पाबंदी
बस शरम पर है !
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