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प्रेम को प्रेम ही कहे तो दुराग्रह और क्लिष्टता का शमन होता है , भ्रान्ति भी नहीं रहती | "प्रेम" के आरम्भ में बड़ी सुन्दर प्रतीति होती है , यहाँ प्रेम प्रयोजन होता है , प्रेमी अभिलाषी , अवलम्ब और प्रेमिका आधार | प्रेमी ,प्रेमिका के अंग , सञ्चालन , भाव , विचार , आचार , विभूति , ऐश्वर्य , आभा , ख्याति आदि सद्गुणों को अत्यंत तीव्रता से ग्रहण करता है | यहाँ वर्जनाओं और प्रेमी / प्रेमिका में दोष ढूंढे नहीं मिलते | प्रेम का प्राकट्य बड़ा अनिश्चित व विस्मयकारी होता है | अपने निजी मित्रों सम्बन्धियों तक से छुपा कर रखा जाने वाला यह भाव , प्रकट होने को आतुर रहता है | इसकी सफलता अभिष्ट के समक्ष उद्घाटित होने पर और उसकी अनिश्चित प्रतिक्रया पर पूर्णतया आश्रित रहती है | उचित स्थल , अवसर की प्रतीक्षा और अपने मनोभावों को श्रेष्ठतम कलेवर में प्रस्तुत कर पाने का स्वप्न संजोये प्रेमी ह्रदय , रातों को जगता है , दिन में जगता ही स्वप्न देखता है |
तुच्छ सांसारिक मोह ,व्यर्थ और अनुपादेय जान पड़ते है | भीतर बहुत क्लेश और पीड़ा में कोई वस्तु औषधि नहीं जान पड़ती | जब प्रेमी / प्रेमिका से मिलन कि भावना पराकाष्ठा पर पहुच जाती है और मन ना ना भय से ग्रस्त शंशय और संभ्रम की दशा में पहुच जाता है तो कई बार प्रेमी का व्यवहार असहज हो उठता है | इसमे विरले अवसरों पर व्यक्तित्व में आमूल और स्रजनात्मक परिवर्तन परिलक्षित होते है जो अपने आभामंडल से समस्त जगत को आलोकित , आनंदित करने का सामर्थ्य रखते है | ज्यादा अवसरों पर व्यक्तित्व में उतराव दिखता है | यही पर वह भेद प्रकट होता है जो प्रेम को सब भावनाओं में श्रेष्ठ और निष्कलुष बनाता है |
प्रेम के साक्षात लौकिक स्वरुप की लीलामय झांकी में दोनों पक्ष मानो मानव शारीर धर प्रकट हुवे हो ऐसी महिमा है श्री राधेकृष्ण अवतरण की | यहाँ राधा जी ही स्वयं श्री कृष्ण है और वैसे ही कृष्ण राधा ही हो गए है | आगे राधा को कृष्ण और कृष्ण को राधा पड़े |
प्रेम में अपेक्षा रहती है और जहा तक लौकिक समझ का प्रश्न है उसकी मर्यादा अनुसार , प्रेमी प्रेमिका का संयोग ही मिलन ही प्रेम की पूर्णता है | इस भाव से भी देखे और इसकी अपरिहार्यता को एक ओर रख कर भी देखे तो राधेकृष्ण सम्पूर्ण प्रेम को परिभाषित और पूर्ण करते है | भक्तों का यह अटूट विश्वास है कि गोलोक में सर्वेश्वर अन्तर्यामी प्रभु राधिका जी के साथ नित्य निवास करते है |
ये इंगित करता है कि लौकिक रूप में भी उस महा अवतार के मिलन को स्वीकार और पूज्य माना गया है | तथ्य और कथा कहती है , श्री कृष्ण के मथुरा प्रयाण के पश्चात राधे कृष्ण का विछोह अनंत हो जाता है | यह विकल्प जगतपति और युगांतकारी कृष्ण स्वयं चुनते है | श्री राधिका उनका समर्थन करती है | इसका अभिप्राय यह नहीं है कि वे एक दुसरे को प्रेम नहीं करते अथवा श्री कृष्ण के सामने राधा का विछोह अनिवार्य शर्त रहा होगा | जैसे कहा गया है कि प्रेम अपनी पराकाष्ठा में सम्पूर्ण जगत को आप्लावित कर देता है और प्रेमी एक दूसरे को कण कण में व्याप्त सदा और सर्वत्र देख पाते है, फिर जगत की परिभाषाएं और विदम्बनायें उनके सामने बहुत तुच्छ हो जाती है | ना राधा कृष्ण एक दुसरे का त्याग करते है ना उनका प्रेम समाप्त ही होता है वरण वह अगले सोपान पर पहुचता है | जहा कृष्ण राधा है और राधा कृष्ण , फिर विछोह का तो प्रश्न ही कहा रह गया | यह पूर्णता को जग कल्याण हेतु समर्पित करने जैसा है | वो राधा कृष्ण ही है जो आगे दुष्टों का संहार कर गीता के अनमोल वचनों में सनातन धर्म को पुनरप्रतिष्ठित करने का महाव्रत पूर्ण करते है | जिसकी अक्षुन्न धारा में कलियुग के भीषण झंझावात भी भक्तों का कुछ नहीं बिगाड़ पाते |
आज की पीढी को आवश्यकता है कि वह जाने इस राधाकृष्ण अवतार को और उसके लोकोत्तर महात्म्य को भी | जिसने भारत भूमि को धरा का भूषण बनाया है | संत वेलेंटाइन के निर्वाण दिवस पर सभी भक्तों के ह्रदय में प्रभु के पदप्रिती का बाहुल्य हो यही कामना है |
श्री राधे राधे !
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