Sunday, August 7, 2022

भटकने लगे है लोग



एक गरम साँस 
होठों के आगे
कानों के पीछे 
एक ठंडी फूंक की ख़ातिर 
बिकने लगे है लोग 


कितने ऊपर 
और चढ़ेंगे
अपने ही 
अगणित 
नरमुंडो पर 
फिसल फिसल 
अब तो 
गिरने लगे है लोग 

मंजिलों से आगे 
और भी आगे  
आसमानों की 
आदिम फ़िराक में
उड़ने से 
चलने या उठने भर से   
बहुत पहले ही 
थकने लगे है लोग 

एकदूजे को 
जकड़े भींचे 
राह दिखाते 
बेसब्र हल्कान 
लड़ने 
उलझने 
भटकने लगे है लोग ...

2 comments:

  1. वाह , सचमुच गिरने लगे हैं लोग .. बहुत सटीक सार्थक कविता .

    ReplyDelete
    Replies
    1. आदरणीया
      गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी आपको सादर धन्यवाद !
      वंदे मातरं !

      Delete