जैसे
तुम हो शुद्ध
शाकाहारी
और
गुज़र जाओ
व्यस्त
मच्छी बाजार से
और ऐसे ही
कभी
किसी एक दिन
जेठ की
जलती दोपहर में
कोई विमान
तुम्हे छोड़ आये
हरी भरी
बर्फीली
वादियों में
दिन वही था
तुम भी
फिर भी
फर्क था
कही बाहर
और भीतर में
कुछ टूट गया था
मच्छी बाजार में
और जुड़ गया था
वादियों में
बस एक बार
तोड़ कर देखो
इस जुड़ाव को
और
फिर वही शान्ति
अंतर में
गूंजती रहेगी
निरंतर
निराधार
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (16-04-2017) को
ReplyDelete"खोखली जड़ों के पेड़ जिंदा नहीं रहते" (चर्चा अंक-2619)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
आदरणीय डॉ साहब आपके बारंबार स्नेह का आभार पूण: पूण:श्च ! प्रणाम !!
Deleteसबको अच्छे दिनों के उम्र कम ही लगती है'
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
Deleteआदरणीया ! बहुत बहुत आभार !
सादर वन्दे !!