मेरी कविता , तुम्हारी कविता
कुछ लिख कर
कह सुन कर
जी हल्का हो जाता है
ये भी लगता है
की चलो
किसी काम आये तो सहीं
मेरे शब्द
जिन्हें
या तो
मैं इस्तेमाल नहीं करता
नहीं कर पाता
वो सब
और
बहुत कुछ नया भी
शामिल हो जाता है
कविता में
मैं नहीं लिखता
ये खुद
मुझे
मेरी कलम सहित
कागज़ के पास
और
अब तो लेपटोप
के पास ले जाती है
मेरी उंगलिया
मेरे मन मष्तिष्क
के साथ
तारतम्य बिठाकर
निकालती जाती है
नए धागे
अनुभव के कोकून से
और फिर
मैं किसी
नौसिखिये जुलाहे की तरह
एक रंग बिरंगी
अनघड
बेढंगी सी
मगर
काम चलाऊ
कविता रच देता हूँ
फिर
उसे पढ़ता हूँ
बार बार
लगता है
इसे मैंने नहीं
किसी और ने लिखा है
और तब
नीचे लिखे
मेरे नाम को
पढ़कर
रोमांचित हो जाता हूँ
जब छोटा था ना
तो माँ को दिखाता था
हाँ
मगर पिता को कभी नहीं
उसी तरह
पत्नी से छुपाकर
और उन दोस्तों से भी
जिन्हें चुगली की आदत है
मैं अपने
साहित्यिक जगत के
आप जैसे
मित्रों से बाटने
निकल पड़ता हूँ
कभी डाकिया
कभी इश्तेहार बांटने वाला बनकर
फेरी लगा लगा
लोगो को पकड़ पकड़
अपनी रचना
पढाता , पढ़वाता
जब
बदले में
कोई भी
थोड़ी सी
प्रतिक्रया पा जाता हूँ
तो
मेरे पैर जमीन पर नहीं रहते
बस
उसी उड़ान का
अब मुझे
नशा होने लगा है
तो
एक कविता और
आप सबकी नज़र करता हूँ
और
उम्मीद करता हूँ
की
इस पाती को
इसके मनोभाव को
हर कविता प्रेमी
समझ जाएगा
और
जरुरत पड़ी
तो
मुझे भी समझाएगा !
--
फिर कोई लोभ का रावण , साधू सा वेश धर वोट मांगता है | शहीदों ने खिंची थी जो लक्ष्मण रेखा वो फिर लहू मांगती है || Tarun Kumar Thakur,Indore (M P) "मेरा यह मानना है कि, कवि अपनी कविता का प्रथम पाठक/श्रोता मात्र होता है |"
Monday, June 14, 2010
Saturday, June 12, 2010
बूंद से सागर
सब प्रश्नों से पहले
समाधान बन
अवतरित हो दाता
मुझे यूं
मुक्ति का वरदान बन
मिले हो दाता
जान पहचान
तो केवल बहाना है
तुमसे ही
तुममे ही
खो कर
मिल जाना है
सागर से ज्यो
बादल बन
उडी थी बूंदे
फिर सरिता संग
तुममे आ मिलेगी
जीवन और जलचक्र
का रिश्ता
है पुराना
मगर
कितना है कठिन
इसे
समझ पाना |
फिर जल होकर
समझ आता है
कि
जीवन इकसार है
तुम भी
मै भी
वो भी
सब
वही अवतार है
मगर
बूंद बने हम
अपने
संशय
संकोच में
सरिता तक नहीं जाते
है पछताते
पूछते है
कि सागर क्यों नहीं बन पाते ?
समाधान बन
अवतरित हो दाता
मुझे यूं
मुक्ति का वरदान बन
मिले हो दाता
जान पहचान
तो केवल बहाना है
तुमसे ही
तुममे ही
खो कर
मिल जाना है
सागर से ज्यो
बादल बन
उडी थी बूंदे
फिर सरिता संग
तुममे आ मिलेगी
जीवन और जलचक्र
का रिश्ता
है पुराना
मगर
कितना है कठिन
इसे
समझ पाना |
फिर जल होकर
समझ आता है
कि
जीवन इकसार है
तुम भी
मै भी
वो भी
सब
वही अवतार है
मगर
बूंद बने हम
अपने
संशय
संकोच में
सरिता तक नहीं जाते
है पछताते
पूछते है
कि सागर क्यों नहीं बन पाते ?
Monday, June 7, 2010
(on Bhopal Gas Tragedy) भारत का हिरोशिमा
हमें जरुरत नहीं है,
किसी
पड़ोसी ताकत की
जो
हमें बर्बाद करने के लिए
खुद बर्बाद हो जाए
हमारे लिए तो
हमारे चुने हुए
प्रतिनिधि ही
किसी
परमाणु बम से
कम नहीं है
ये
किसी एंडरसन को
भोपाल तो दे सकते है
पर
भोपाल को
एंडरसन देना
इनकी औकात नहीं है
वैसे
औकात से पहले
इनकी नियत पे
शक होता है
और
नियत तक तो बात
तब पहुँचे जब
किसी के
इंसान होने की
भी
थोड़ी संभावना हो
भोपाल सबक है
विकास के पीछे
अंधी दौड़ में
शामिल
तथाकथित
विकासशील देशों के लिए
जो
अमेरिका
और
जापान
से
होड़ में
ऐसे कितने
हिरोशिमा
और
नागासाकी
लिए
बैठे है
भोपाल में
गैस अब भी
रिस रही है
तब इसमे
इंसान मरे थे
अब
इंसानियत
मर रही है !
किसी
पड़ोसी ताकत की
जो
हमें बर्बाद करने के लिए
खुद बर्बाद हो जाए
हमारे लिए तो
हमारे चुने हुए
प्रतिनिधि ही
किसी
परमाणु बम से
कम नहीं है
ये
किसी एंडरसन को
भोपाल तो दे सकते है
पर
भोपाल को
एंडरसन देना
इनकी औकात नहीं है
वैसे
औकात से पहले
इनकी नियत पे
शक होता है
और
नियत तक तो बात
तब पहुँचे जब
किसी के
इंसान होने की
भी
थोड़ी संभावना हो
भोपाल सबक है
विकास के पीछे
अंधी दौड़ में
शामिल
तथाकथित
विकासशील देशों के लिए
जो
अमेरिका
और
जापान
से
होड़ में
ऐसे कितने
हिरोशिमा
और
नागासाकी
लिए
बैठे है
भोपाल में
गैस अब भी
रिस रही है
तब इसमे
इंसान मरे थे
अब
इंसानियत
मर रही है !
Friday, June 4, 2010
हे राजनीति !
हे राजनीति !
तुम फिर चर्चा में हो
वैसे हर बार
तुम ही होती हो
हर चर्चा का कारण
मगर
इस बार
तुम
सोद्देश्य चर्चा में हो
उठ नहीं सकती
भाग नहीं सकती
जनता , नेता , अधिकारी
गुंडे , छात्र , व्यवसायी
गृहणी , प्रेयसी ,
माँ - पिता
दादा -पोता
अपाहिज , अछूत
अगड़ा पिछड़ा
.....
सब
यहाँ तक की
सभी
छोटे बड़े
भिखारी भी
चश्मों
और बगैर चश्मों के
देखेंगे तुम्हें
तथष्ठ भाव से
पहली बार
एकमत्त होकर
उस भाषा में
जो
अनचाहे
अनजाने
राष्ट्र भाषा
बन गयी है
"सिनेमा "
अब कोई मुद्दा
तुम तक आकर
विवाद
नहीं बन पायेगा
इस बार
तुम स्वयं
कटघरे में हो
ये
कच्चे सच्चे न्यायाधीश
अपनी
काली सफ़ेद कमाई से
काला सफ़ेद टिकट लेकर
स्वत: प्रतिबद्ध हो जायेंगे
भले
उनमे
राष्ट्रगान पर खड़े होने का
शऊर ना हो
तुमने जो
व्यस्त कर रक्खा था
उन्हें
मनघडंत
इतिहास ,
विवादास्पद न्याय
और
हास्यास्पद व्यवस्था
के
दुरूह ताने बाने में
अब वे
कुछ क्षण
आजाद होकर
अँधेरे में
उजाले की
किरण ढूंढेंगे
वहा परदे पर
नायिका नहीं
तुम्हारे कपडे उतरेंगे
सीटियों
गालियों
और
भड़ास के बीच
शायद
कथ्य ना सही
विषय ही
याद रह जाए
उन्हें
ताकि वो
तुम्हारा
दामन
फिर साफ़ कर सके
उस एक दिन
इस विषय को
याद कर
जिस दिन
तुम्हारी ही व्यवस्था
प्रचार पर
विराम लगाती है
चुनाव के
ठीक
एक दिन पहले
"राजनीति "
तुम्हारा स्वागत है
खुले मन से
के
तुमने ही
बदला है
जो पुराना था
अब
तुम्हे बदलना है
नया होना है
साफ़ होना है
काले धन की गटर
और
उसमे पनपे मच्छरों से
आजाद होना है
और
हमारी आजादी
वो तो अभी बाकी है
मेरे दोस्त ...
आजादी
अभी
बाकी है मेरे दोस्त !
तुम फिर चर्चा में हो
वैसे हर बार
तुम ही होती हो
हर चर्चा का कारण
मगर
इस बार
तुम
सोद्देश्य चर्चा में हो
उठ नहीं सकती
भाग नहीं सकती
जनता , नेता , अधिकारी
गुंडे , छात्र , व्यवसायी
गृहणी , प्रेयसी ,
माँ - पिता
दादा -पोता
अपाहिज , अछूत
अगड़ा पिछड़ा
.....
सब
यहाँ तक की
सभी
छोटे बड़े
भिखारी भी
चश्मों
और बगैर चश्मों के
देखेंगे तुम्हें
तथष्ठ भाव से
पहली बार
एकमत्त होकर
उस भाषा में
जो
अनचाहे
अनजाने
राष्ट्र भाषा
बन गयी है
"सिनेमा "
अब कोई मुद्दा
तुम तक आकर
विवाद
नहीं बन पायेगा
इस बार
तुम स्वयं
कटघरे में हो
ये
कच्चे सच्चे न्यायाधीश
अपनी
काली सफ़ेद कमाई से
काला सफ़ेद टिकट लेकर
स्वत: प्रतिबद्ध हो जायेंगे
भले
उनमे
राष्ट्रगान पर खड़े होने का
शऊर ना हो
तुमने जो
व्यस्त कर रक्खा था
उन्हें
मनघडंत
इतिहास ,
विवादास्पद न्याय
और
हास्यास्पद व्यवस्था
के
दुरूह ताने बाने में
अब वे
कुछ क्षण
आजाद होकर
अँधेरे में
उजाले की
किरण ढूंढेंगे
वहा परदे पर
नायिका नहीं
तुम्हारे कपडे उतरेंगे
सीटियों
गालियों
और
भड़ास के बीच
शायद
कथ्य ना सही
विषय ही
याद रह जाए
उन्हें
ताकि वो
तुम्हारा
दामन
फिर साफ़ कर सके
उस एक दिन
इस विषय को
याद कर
जिस दिन
तुम्हारी ही व्यवस्था
प्रचार पर
विराम लगाती है
चुनाव के
ठीक
एक दिन पहले
"राजनीति "
तुम्हारा स्वागत है
खुले मन से
के
तुमने ही
बदला है
जो पुराना था
अब
तुम्हे बदलना है
नया होना है
साफ़ होना है
काले धन की गटर
और
उसमे पनपे मच्छरों से
आजाद होना है
और
हमारी आजादी
वो तो अभी बाकी है
मेरे दोस्त ...
आजादी
अभी
बाकी है मेरे दोस्त !
Thursday, June 3, 2010
बादल कब बरसोगे ?
बादल कब बरसोगे ?
अभी !
या
बुवाई के बाद !!
देखो
तुम
वैसा मत करना
जैसा सब करते है
सामने से गुजरते है
मगर मिलते नहीं
पिछले सावन
ले गए थे
सुख चैन सारा
अब तो लौटा दो
कितना ब्याज
चढ़ आया है
लाला भी
अब
खेतों को
अपना समझने लगा है
उसकी भूखी नजरे
मांस नोचती है
बेटियों के
उघडे बदन से
तुम इस बार
कपड़ा बन बरस जाओ
रोटी बन बरस जाओ
तो चिंता छूटे
मगर तुम भी
बही खातों में
दर्ज हो
बढ़ता हुवा
कर्ज हो
सबके कर्मो का
हिसाब करते हो
तब
थोड़ा बरसते हो
तो
इस बार
उधार बन बरसों
खेती में खटते
पिया का
प्यार बन बरसों
ओ बादल
तुम
बहार बन बरसों
हमारी सरकार बन बरसों
जो
हरे पेड़ काटती है
हरे नोट छापती है
दारु कम्बल बाटती है
हां
तुम चुनाव बन बरसों
अभी !
या
बुवाई के बाद !!
देखो
तुम
वैसा मत करना
जैसा सब करते है
सामने से गुजरते है
मगर मिलते नहीं
पिछले सावन
ले गए थे
सुख चैन सारा
अब तो लौटा दो
कितना ब्याज
चढ़ आया है
लाला भी
अब
खेतों को
अपना समझने लगा है
उसकी भूखी नजरे
मांस नोचती है
बेटियों के
उघडे बदन से
तुम इस बार
कपड़ा बन बरस जाओ
रोटी बन बरस जाओ
तो चिंता छूटे
मगर तुम भी
बही खातों में
दर्ज हो
बढ़ता हुवा
कर्ज हो
सबके कर्मो का
हिसाब करते हो
तब
थोड़ा बरसते हो
तो
इस बार
उधार बन बरसों
खेती में खटते
पिया का
प्यार बन बरसों
ओ बादल
तुम
बहार बन बरसों
हमारी सरकार बन बरसों
जो
हरे पेड़ काटती है
हरे नोट छापती है
दारु कम्बल बाटती है
हां
तुम चुनाव बन बरसों
Wednesday, June 2, 2010
छोटी छोटी बातें
समय पर न्याय
उचित मूल्य पर सामान
करों से राहत
शिकायत पर सुनवाई
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
रिश्तो में सुविधा
सुविधा का रिश्ता
खाने खिलाने का शिष्टाचार
टूटे वादे
अच्छी यादें
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
आचरण की पवित्रता
आँखों में पानी
धर्म से सरोकार
कर्म में निष्ठा
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
सहजता
सुलभता
सब्र
अनुभव
आग्रह
सराहना
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
मगर
इन्ही छोटी मोटी बातों ने
जीवन को
मीठा बनाया
नमकीन भी
अब
सब खारा खारा लगता है
जीवन भंडारा लगता है
जहां
भीख को
प्रसाद कहकर
मन हल्का करते है
देते हुवे हाथ
लेते हुवे हाथ
खैर
सब छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं ...
!?!
उचित मूल्य पर सामान
करों से राहत
शिकायत पर सुनवाई
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
रिश्तो में सुविधा
सुविधा का रिश्ता
खाने खिलाने का शिष्टाचार
टूटे वादे
अच्छी यादें
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
आचरण की पवित्रता
आँखों में पानी
धर्म से सरोकार
कर्म में निष्ठा
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
सहजता
सुलभता
सब्र
अनुभव
आग्रह
सराहना
छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं
मगर
इन्ही छोटी मोटी बातों ने
जीवन को
मीठा बनाया
नमकीन भी
अब
सब खारा खारा लगता है
जीवन भंडारा लगता है
जहां
भीख को
प्रसाद कहकर
मन हल्का करते है
देते हुवे हाथ
लेते हुवे हाथ
खैर
सब छोटो छोटी बातें है
जिनका कोई मोल नहीं ...
!?!
Sunday, May 2, 2010
मैं सिर्फ सच कहूंगा ...
मैं सिर्फ सच कहूंगा ...
सच के सिवा कुछ नहीं |
इतनी शपथ लेने के बाद
मैंने देखा
कोई नहीं चाहता था
सच सुनना
उस गहरी खामोशी
का मतलब
मैं समझ भी रहा था
और
सोच रहा था
तोड़
इस शपथ का
जो
मैंने
अभी अभी ली थी
पवित्र पुस्तक पर
हाथ रख कर
मैंने बहुत सोचा
पर
याद नहीं
मैंने
उस पवित्र पुस्तक को
कभी पढ़ा भी था
हां उसकी महिमा
मेरे जहन में भरी थी
जो
मुझे
रोक रही थी
शपथ तोड़ने से
मैंने फिर भी सोचा
कोई तो राह होगी
कि
कसम भी रह जाएँ
और
पुस्तक का मान भी
मैंने ये भी सोचा
क्या
पहले कभी
किसी ने भी
तोड़ी ना होगी शपथ
मुझसे पहले ?
फिर
ये किताब
वो कुर्सी
और
वो
न्यायाधीश
जीवित कैसे रहें??
क्या
भ्रष्ट व्यवस्था
श्राप
और
ईश्वरीय अवमानाओं से
कहीं ऊपर है? ??
आखिर
कब तक
शपथ का उत्तरदायित्व
मुझ अकेले को
ढोना होगा?
कौन करेगा
इनका फैसला ??
जो
साक्षी है
अनगिनत झूठी शपथों के
जो
अन्याय को
आश्रय देते हैं
उस किताब में
जिसे
संविधान कहते है||
जो
गीता
कुरआन
और बाईबल का
रोज अपमान करवाती है
हमारे अपने ही हाथों
और
हम मजबूर है
क्योंकि
धर्मनिरपेक्ष
और
इंडियन होने की
इतनी कीमत तो
चुकानी होगी ना ||
सच के सिवा कुछ नहीं |
इतनी शपथ लेने के बाद
मैंने देखा
कोई नहीं चाहता था
सच सुनना
उस गहरी खामोशी
का मतलब
मैं समझ भी रहा था
और
सोच रहा था
तोड़
इस शपथ का
जो
मैंने
अभी अभी ली थी
पवित्र पुस्तक पर
हाथ रख कर
मैंने बहुत सोचा
पर
याद नहीं
मैंने
उस पवित्र पुस्तक को
कभी पढ़ा भी था
हां उसकी महिमा
मेरे जहन में भरी थी
जो
मुझे
रोक रही थी
शपथ तोड़ने से
मैंने फिर भी सोचा
कोई तो राह होगी
कि
कसम भी रह जाएँ
और
पुस्तक का मान भी
मैंने ये भी सोचा
क्या
पहले कभी
किसी ने भी
तोड़ी ना होगी शपथ
मुझसे पहले ?
फिर
ये किताब
वो कुर्सी
और
वो
न्यायाधीश
जीवित कैसे रहें??
क्या
भ्रष्ट व्यवस्था
श्राप
और
ईश्वरीय अवमानाओं से
कहीं ऊपर है? ??
आखिर
कब तक
शपथ का उत्तरदायित्व
मुझ अकेले को
ढोना होगा?
कौन करेगा
इनका फैसला ??
जो
साक्षी है
अनगिनत झूठी शपथों के
जो
अन्याय को
आश्रय देते हैं
उस किताब में
जिसे
संविधान कहते है||
जो
गीता
कुरआन
और बाईबल का
रोज अपमान करवाती है
हमारे अपने ही हाथों
और
हम मजबूर है
क्योंकि
धर्मनिरपेक्ष
और
इंडियन होने की
इतनी कीमत तो
चुकानी होगी ना ||
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